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शताब्दी से ही ग्रहवेध की परिपाटी का ह्रास होने लग गया है। यों तो प्राचीन ग्रन्थों को स्पष्ट करने और उनके रहस्यों को समझाने के लिए इस युग में अनेक टीकाएँ और भाष्य लिखे गये, पर आकाश-निरीक्षण की प्रथा उठ जाने से मौलिक साहित्य का निर्माण न हो सका । ग्रहलाघव, करणकुतूहल और मकरन्द-जैसे सुन्दर करण ग्रन्थों का निर्मित होना भी इस युग के लिए कम गौरव की बात नहीं है।
फलित ज्योतिष में जातक, मुहूर्त, सामुद्रिक, रमल और प्रश्न इन अंगों के साहित्य का निर्माण भी उत्तरमध्यकाल में कम नहीं हुआ है। मुसलिम संस्कृति के अति निकट सम्पर्क के कारण रमल और ताजिक इन दो अंगों का तो नया जन्म माना जायेगा। ताजिक शब्द का अर्थ ही अरबदेश से प्राप्त शास्त्र है । इस युग में इस विषय पर लगभग दो दर्जन ग्रन्थ लिखे गये हैं । इस शास्त्र में किसी व्यक्ति के नवीन वर्ष और मास में प्रवेश करने की ग्रहस्थिति पर से उसके समस्त वर्ष और मास का फल बताया जाता है । बलभद्रकृत ताजिक ग्रन्थ में कहा है
यवनाचार्यण पारसीकभाषायां प्रणीतं ज्योतिःशास्त्रकदेशरूपं वार्षिकादिनानाविधफलादेशफलकशास्त्रं ताजिकफलवाच्यं तदनन्तरभूतैः समरसिंहादिभिः ब्राह्मणः तदेव शास्त्रं संस्कृतशब्दोपनिबद्धं ताजिकशब्दवाच्यम् । अत एव तैस्ता एव इकबालादयो यावत्यः संज्ञा उपनिबद्धाः।
अर्थात्-यवनाचार्य ने फ़ारसी भाषा में ज्योतिष शास्त्र के अंगभूत वर्ष, मास के फल को नाना प्रकार से व्यक्त करनेवाले ताजिक शास्त्र की रचना की थी। इसके पश्चात् समरसिंह आदि विद्वानों ने संस्कृत भाषा में इस शास्त्र की रचना की और इक्कबाल, इन्दुवार, इशराफ आदि यवनाचार्य द्वारा प्रतिपादित योगों की संज्ञाएँ ज्यों की त्यों रखीं।
कुछ विद्वानों का मत है कि ईसवी सन् १३०० में तेजसिंह नाम के एक प्रकाण्ड ज्योतिषी भारत में हुए थे, उन्होंने वर्ष-प्रवेश-कालीन लग्नकुण्डली द्वारा ग्रहों का फल निकालने की एक प्रणाली निकाली थी। कुछ काल के पश्चात् इस प्रणाली का नाम आविष्कर्ता के नाम पर ताजिक पड़ गया। ग्रन्थान्तरों में यह भी लिखा मिलता है कि
गर्गाचर्यवनैश्च रोमकमुखैः सत्यादिभिः कीर्तितम् ।
शास्त्रं ताजिकसंज्ञकं..............................॥ अर्थात्-गर्गाचार्य, यवनाचार्य, सत्याचार्य और रोमक ने जिस फलादेश-सम्बन्धी शास्त्र का निरूपण किया था, वह ताजिक शास्त्र था। अतएव यह स्पष्ट है कि ताजिक शास्त्र का विकास स्वतन्त्र रूप से भारतीय ज्योतिषतत्त्वों के आधार पर हुआ है। हाँ, यवनों के सम्पर्क से उसमें संशोधन और परिवर्द्धन अवश्य किये गये हैं, पर तो भी उसकी भारतीयता अक्षुण्ण बनी हुई है।
प्रश्न-अंग के साहित्य का निर्माण भी इस युग में अधिक रूप से हुआ। आचार्य दुर्गदेव ने सं. १०८९ में रिष्टसमुच्चय नामक ग्रन्थ में अंगुलिप्रश्न, अलक्तप्रश्न,
प्रथमाध्याय
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