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[ २४ ] तात्त्विकताको संकेतित करनेकी एक सक्षम दार्शनिक प्रक्रिया है । आचार्य समन्तभद्रका आप्तमीमांसा-ग्रन्थ अनेकान्तवादकी उस विशेष भूमिकाको स्पष्ट करनेके लिए अपने प्रतिपाद्य अनेकान्तभूत अस्तित्वका अनिवार्य सम्बन्ध सर्वज्ञतासे जोड़ता है। इसी प्रस्थान-भूमिसे चलकर समन्तभद्रने एक ओर अनेकान्तके अन्तरंग आध्यात्मिक उष्कर्षको प्रकट किया है और दूसरी ओर अस्तित्वकी वास्तविक अवधारणामें अन्य दर्शनोंकी अक्षमताको प्रकट किया है। आचार्य समन्तभद्रके इस गूढाभिप्रायको समझना बहुत ही कठिन होता यदि अकलंकदेव और विद्यानन्द स्वामी जैसे अनेकानेक दर्शनोंके पारदृश्वा आचार्योंने अपने प्रौढ़ ग्रन्थ अष्टशती और अष्टसहस्री द्वारा उसका पुङ्गानुपूत आलोचन न किया होता। आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्रीमें आठवी-नवमीं शताब्दी तकके समस्त प्रमुख भारतीय दार्शनिकोंके वादोंका अत्यन्त प्रामाणिक उत्थापन किया है और अपनी दृष्टिसे उनकी प्रौढ़ आलोचना की है। इस प्रकार यह ग्रन्थ प्रामाणिक सूचनाकी दृष्टिसे दर्शनोंका आकर-ग्रन्थ है। . आप्तमीमांसा, अष्टशती और अष्टसहस्रीका सम्यक् आलोडन कर श्री उदयचन्द्र जैनने संक्षेपमें हिन्दी माध्यमसे आचार्य समन्तभद्र, अकलंक और विद्यानन्दके दर्शन-वैभवका जो प्रस्तुतीकरण किया है, वह उनके दर्शनसम्बन्धी गम्भीर ज्ञानका महत्वपूर्ण निदर्शन है । दार्शनिक जटिलताको संक्षेप और सूबोध बनाकर वास्तवमें उन्होंने इस विषयमें प्रवेशके लिए राजमार्ग खोल दिया है।
वाराणसी २०-१-७५
जगन्नाथ उपाध्याय प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, पालिविभाग
संस्कृत विश्वविद्यालय
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