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[ २३ ] सामान्यवादी और केवल विशेषवादीके पास उसका समुचित उत्तर नहीं रह जाता। इसके सम्यक् समाधानके लिए अन्य दर्शनोंको एकान्तवादी दृष्टिसे हटकर अनेकान्तवादकी शरण लेनी पड़ेगी।
अनेकान्तवाद स्वीकार करनेके साथ ही अस्तित्वका एक ऐसा स्वरूप सामने आता है. जो सामान्यवाद और विशेषवादसे अत्यन्त भिन्न है। उस अपरिचित तत्त्वको समझानेके लिए जैन आचार्योंने नयी परिभाषा तथा शब्दावलियोंका आविष्कार किया। स्याद्वाद और उसका सप्तभङ्गीनय उसी अस्तित्वकी व्याख्या करने में सचेष्ट हैं। किन्तु इन सारी उपपत्तियोंसे अस्तित्वकी वास्तविकताका सम्यक् आकलन हो जाय तथा तत्त्व-निश्चयके लिये अन्तिम प्रमाणके रूपमें उसे स्वीकार कर लिया जाय, इस पर अनेकान्तवादी आचार्योंको भी पूरा भरोसा नहीं था। इस तथ्य को वे समझते थे कि तत्त्वावगाहन एक आध्यात्मिक प्रतिभाका क्षेत्र है, जिसके साक्षात्कारमें शाब्दिक एवं तार्किक उपपत्तियाँ एक सीमाके बाद चरितार्थ नहीं होतीं। इसके लिए उन्होंने 'सर्वज्ञता' को प्रमाणके रूपमें स्वीकार किया। प्रमाणभूत सर्वज्ञतासे उनका अभिप्राय ईश्वर या वेदोंकी सर्वज्ञतासे नहीं था, अपि तु आवरण-प्रहीणताके आधार पर मानव-सर्वज्ञतासे रहा है, जिसे प्राप्त कर वर्धमान 'महावीर' हुए थे।
इस प्रकारकी सर्वज्ञतासे प्रमाणित अनेकान्त तत्त्वको सर्वसामान्यके समक्ष प्रस्तुत करनेके लिए शास्त्रोंमें सप्तभङ्गीनयका प्रयोग-कौशल दिखाया गया है। अनेकानेक दृष्टि-बन्धोंमें उलझी हई जनताको अनेकान्तके अध्यात्मतत्त्वको समझानेके प्रसंगमें आचार्योंने उसे भेदाभेदात्मक, सामान्यविशेषात्मक, भावाभावात्मक, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक और द्रव्यपर्यायात्मक आदि शब्दोंसे अभिहित किया और उसे युक्तिसंगत करनेके लिए तार्किक उपपत्तियोंका भरपूर उपयोग किया। इन शब्दोंके प्रयोगके विना जैन-दर्शनके प्रस्थानको समझना एक ओर कठिन था तो दूसरी ओर उन्हीं शब्दोंके प्रयोग करनेसे यह भ्रम भी होने लगा कि स्याद्वाद परस्पर विरोधी तत्त्वोंके एकत्रीकरणका तार्किक प्रयासमात्र है। इन्हीं विरोधी परिस्थितियोंके बीच स्याद्वाद पर संभावनावादी, कदाचिद्वादी और अपेक्षावादी होनेका आक्षेप खड़ा किया जाता है। इस भ्रमसे अनेकान्तवादका पृथक् दार्शनिक प्रस्थानके रूप में अस्तित्वकी और जीवनदृष्टिकी जो उत्कृष्टतम अवधारणा है, उसमें कमी आना संभव है । वास्तवमें अनेकान्तवाद एकान्तवादी दृष्टियोंकी व्यावृत्तिके द्वारा विधिमुखसे अनेकान्तकी आध्यात्मिक
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