Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ बाहुबली का क्रोध चरम सीमा पर पहुँचे गया था। उन्होंने सम्राट् भरत और चक्र को नष्ट करने के मुट्ठी उठाई तो सभी के स्वर फूट पड़े-सम्राट भरत ने भूल की है पर आप न करें। छोटे भाई के द्वारा बड़े भाई की हत्या अनुचित ही नहीं अत्यन्त अनुचित है। आप महान् पिता के पुत्र हैं, अतः क्षमा करें। बाहुबली का क्रोध शान्त हो गया। उनका हाथ भरत पर न पड़कर स्वयं के सिर पर पा गया। वे केशलुञ्चन कर श्रमण बन गये / 220 प्रस्तुत वर्णन कवियों ने बहुत ही विस्तार से चित्रित किया है / इस चित्रण में बाहुबली के व्यक्तित्व की विशेषता का वर्णन हुआ है। पर मूल प्रागम में इस सम्बन्ध में किञ्चिन्मात्र भी संकेत नहीं है और न 99 भ्रातामों के प्रवजित होने का ही उल्लेख है / उन्होंने किस निमित्त से दीक्षा ग्रहण की, इस सम्बन्ध में भी शास्त्रकार मौन हैं। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में वर्णन है कि भरत प्रादर्शघर में जाते हैं। वहाँ अपने दिव्य रूप को निहारते हैं। शुभ अध्यवसायों के कारण उन्हें केवलज्ञान व केवलदर्शन प्राप्त हो गया। उन्होंने केवलज्ञान/केवलदर्शन होने के पश्चात् सभी वस्त्राभूषणों को हटाया और स्वयं पञ्चमुष्टि लोच कर श्रमण बने / 19' परन्तु आवश्यकनियुक्ति प्रादि में यह वर्णन दूसरे रूप में प्राप्त है। एक बार भरत आदर्श भवन में गए। उस समय उनकी अंगुली से अंगठी नीचे गिर पडी। अंगठी रहित अंगली शोभाहीन प्रतीत हई। वे सोचने लगे कि अचेतन पदार्थों से मेरी शोभा है ! मेरा वास्तविक स्वरूप क्या है ? मैं जड़ पदार्थों की सुन्दरता को अपनी सुन्दरता मान बैठा हैं। इस प्रकार चिन्तन करते हुए उन्होंने मुकुट, कुण्डल आदि समस्त प्राभूषण उतार दिये / सारा शरीर शोभाहीन प्रतीत होने लगा। वे चिन्तन करने लगे कि कृत्रिम सौन्दर्य चिर नहीं है, प्रात्मसौन्दर्य ही स्थायी है। भावना का वेग बढ़ा और वे कर्ममल को नष्ट कर केवलज्ञानी बन गये। दिगम्बर प्राचार्य जिनसेन 223 ने सम्राट् भरत की विरक्ति का कारण अन्य रूप से प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है कि एक बार सम्राट भरत दर्पण में अपना मुख निहार रहे थे कि सहसा उनकी दृष्टि अपने सिर पर पाए हए प्रवेत केश पर टिक गई। उसे निहारते-निहारते ही संसार से विरक्ति हुई। उन्होंने सं और कुछ समय के पश्चात् ही उनमें मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान प्रकट हुप्रा / श्रीमद्भागवत 534 में सम्राट भरत का जीवन कुछ अन्य रूप से मिलता है। राजर्षि भरत सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य भोगकर वन में चले गये। वहां पर उन्होंने तपस्या कर भगवान् की उपासना की और तीन जन्मों में भगवस्थिति को प्राप्त हुए। पावश्यकणि और महापुराण में यह भी वर्णन है कि क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्गों की स्थापना भगवान् ऋषभदेव ने की और ब्राह्मण वर्ण की स्थापना सम्राट भरत ने की। आवश्यकचूणि के अनुसार जब 220. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित 1151740-742 221. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार 3 222. (क) प्रावश्यकनियुक्ति 436 (ख) प्रावश्यकचूणि पृष्ठ 227 223. महापुराण 47 / 392-393 224. श्रीमद्भागवत 11121181711 [46 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org