Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 296] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र तए णं तेसि सोहम्मकप्पवासीणं, बहणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य एगन्तरइपसत्तणिच्चपमत्तविसयसुहमुच्छिाणं, सूसरघण्टारसिनविउलबोलपूरिन-चवल-पडिबोहणे कए समाणे घोसणकोऊहलदिण्ण-कण्णएगग्गचित्तउवउत्तमाणसाणं से पायताणीग्राहिवई देवे तंसि घण्टारवंसि निसंतपडिसंतंसि समाणंसि तत्थ तत्थ तहि 2 देसे महया महया सद्देणं उग्धोसेमाणे 2 एवं वयासोति'हन्त ! सुणंतु भवंतो बहवे सोहम्मकप्पवासी वेमाणिप्रदेवा देवीओ अ सोहम्मकप्पवणो इणमो बयणं हिअसुहत्यं-अणणवेवइ णं भो (सक्कस्स देविदस्स देवरणो) अंतिअं पाउन्भवहत्ति / तए णं ते देवा देवीप्रो अ एयमझें सोच्चा हद्वतुहिअया' अप्पेगइआ बन्दणवत्तिअं, एवं पूषणवत्ति, सक्कारवत्तिअं, सम्माणवत्ति सणवत्तिअं, जिणभत्तिररगेणं, अपेगइआ तं जीअमेअं एवमादि त्ति कट्ट जाव' पाउन्भवंति ति। तए णं से सक्के देविदे, देवराया ते वेमाणिए देवे देवीओ अ अकाल-परिहीणं चेव अंतिअं पाउन्भवमाणे पासइ २त्ता हठे पालयं णाम प्राभिओगिरं देवं सद्दावेद 2 ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ! अणेगखम्भसयसण्णिविठ्ठ, लीलट्ठिय-सालभंजिआकलिअं, ईहामिअउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभचमरफुजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं, खंभुग्गयवहरवेइमापरिगयाभिरामं, विज्जाहरजमलजुअलजंतजुत्तं पिव, अच्ची-सहस्समालिणीअं, रूवगसहस्सकलिअं, भिसमाणं भिम्भिसमाणं, चक्खुल्लोषणलेसं, सुहफासं, सस्सिरोअरूवं, घण्टावलिअमहरमणहरसरं, सुह, कन्तं, दरिसणिज्ज, णिउणोविअमिसिमिसितमणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्तं, जोयणसहस्सवित्थिण्णं, पञ्चजोप्रणसयमुग्विद्धं, सिग्धं, तुरिअं जइणणिवाहि, दिव्वं जाणविमाणं विउव्याहि 2 ता एप्रमाणत्तिनं पच्चप्पिणाहि। [148] उस काल, उस समय शक नामक देवेन्द्र-देवों के परम ईश्वर स्वामी, देवराजदेवों में सुशोभित, वज्रपाणि-हाथ में वज्र धारण किए, पुरन्दर-पुर-असुरों के नगरविशेष के दारक-विध्वंसक, शतक्रतु-पूर्व जन्म में कार्तिक श्रेष्ठी के भव में :सौ बार श्रावक की पंचमी प्रतिमा के परिपालक, सहस्राक्ष-हजार आँखों वाले-अपने पाँच सौ मन्त्रियों की अपेक्षा हजार आँखों वाले, मघवा-मेघों के- बादलों के नियन्ता, पाकशासन-पाक नामक शत्रु के नाशक, दक्षिणार्धलोकाधिपति, बत्तीस लाख विमानों के स्वामी, ऐरावत नामक हाथी पर सवारी करने वाले, सुरेन्द्र-देवताओं के प्रभु, आकाश की तरह निर्मल वस्त्रधारी, मालाओं से युक्त मुकुट धारण किये हुए, उज्ज्वल स्वर्ण के सुन्दर, चित्रित चंचल-हिलते हुए कुण्डलों से जिसके कपोल सुशोभित थे, देदीप्यमान शरीरधारी, लम्बी पुष्पमाला पहने हुए, परम ऋद्धिशाली, परम द्युतिशाली, महान् बली, महान् यशस्वी, परम प्रभावक, अत्यन्त सुखी, सौधर्मकल्प के अन्तर्गत सौधर्मावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में इन्द्रासन पर स्थित होते हुए बत्तीस लाख विमानों, चौरासी हजार सामानिक देवों, तेतीस गुरुस्थानीय त्रायस्त्रिंश देवों, चार लोकपालों, परिवारसहित आठ अग्रमहिषियों-प्रमुख इन्द्राणियों, तीन परिषदों, सात अनीकों सेनाओं, सात अनीकाधिपतियों-सेनापति देवों, तीन लाख छत्तीस हजार अंगरक्षक देवों 1. देखें सूत्र संख्या 44 1. देखें सूत्र यही Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org