Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सफाम वक्षस्कार] [337 171. जम्बुद्दीवे णं भंते ! दोघे सूरित्राणं कि तोते खित्ते किरिया कज्जइ, पडुप्पण्णे किरिमा कम्जइ, अणागए किरिआ कज्जइ ? गोयमा ! णो तीए खित्ते किरिश्रा कज्जइ, पडुप्पण्णे कज्जइ, णो प्रणागए। सा भंते ! कि पुट्ठा कज्जइ० ? गोयमा ! पुट्ठा, णो प्रणापुट्ठा कज्जइ। (.."सा णं भंते ! कि प्राइं किज्जइ, मज्झे किज्जइ, पज्जवसाणे किज्जइ ? गोयमा ! आइंपि किज्जइ मज्झवि किज्जइ पज्जवसाणेवि किज्जइ त्ति) णिअया छद्दिसि / / [171] भगवन् ! जम्बूद्वीप में दो सूर्यों द्वारा अवभासन आदि क्रिया क्या अतीत क्षेत्र में की जाती है या प्रत्युत्पन्न-वर्तमान क्षेत्र में की जाती है अथवा अनागत क्षेत्र में की जाती है ? गौतम ! अवभासन आदि क्रिया अतीत क्षेत्र में नहीं की जाती, प्रत्युत्पन्न-वर्तमान क्षेत्र में की जाती है / अनागत क्षेत्र में भी क्रिया नहीं की जाती। __ भगवन् ! क्या सूर्य अपने तेज द्वारा क्षेत्र-स्पर्शन पूर्वक-क्षेत्र का स्पर्श करते हुए अवभासन आदि क्रिया करते हैं या स्पर्श नहीं करते हुए अवभासन आदि क्रिया करते हैं ? (गौतम ! वे क्षेत्र-स्पर्शनपूर्वक अवभासन आदि क्रिया करते हैं क्षेत्र का स्पर्श नहीं करते हुए अवभासन आदि क्रिया नहीं करते / ___भगवन् ! वह अवभासन आदि क्रिया साठ मुहूर्तप्रमाण मण्डलसंक्रमणकाल के आदि में की जाती है या मध्य में की जाती है या अन्त में की जाती है ? ___गौतम ! वह आदि में भी की जाती है, मध्य में भी की जाती है और अन्त में भी की जाती है।) वह नियमतः छहों दिशाओं में की जाती है। ऊर्ध्वादि ताप 172. जम्बुद्दोवे गं भंते ! दीये सरिआ केवइ खेत्तं उद्धं तवयन्ति अहे तिरिसंच? गोयमा ! एगं जोअणसयं उद्ध तवयन्ति, अट्ठारससयजोनणाई अहे तवयन्ति, सीयालीसं जोश्रणसहस्साई दोणि अ तेवढे जोअणसए एगवीसं च सद्विभाए जोअणस्स तिरिनं तवयन्तित्ति 13 / [172] भगवन् ! जम्बूद्वीप में सूर्य कितने क्षेत्र को ऊर्ध्वभाग में अपने तेज से तपाते हैंव्याप्त करते हैं ? अधोभाग में नीचे के भाग में तथा तिर्यक भाग में तपाते हैं ? गौतम ! ऊर्ध्वभाग में 100 योजन क्षेत्र को, अधोभाग में 1800 योजन क्षेत्र को तथा तिर्यक् भाग में 4726330 योजन क्षेत्र को अपने तेज से तपाते हैं व्याप्त करते हैं। ऊवोपन्नादि 173. अंतो णं भंते ! माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चंदिमसूरिअगहगणणक्खत्ततारारूवा णं भन्ते ! देवा किं उद्घोषवण्णगा कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोववण्णगा, चारदिईआ, गइरइआ, गइसमावण्णगा ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org