Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र भगवन् ! ऐसा किस कारण से है ? गौतम ! पूर्व भव में उन ताराविमानों के अधिष्ठातृ देवों का अनशन आदि तप आचरण, शौच आदि नियमानुपालन तथा ब्रह्मचर्य-सेवन जैसा-जैसा उच्च या अनुच्च होता है, तदनुरूप उस तारतम्य के अनुसार उनमें द्युति, वैभव आदि की दृष्टि से चन्द्र आदि से हीनता-न्यूनता या तुल्यता होती है। पूर्व भव में उन देवों का तप आचरण नियमानुपालन, ब्रह्मचर्य-सेवन जैसे-जैसे उच्च या अनुच्च नहीं होता, तदनुसार उनमें द्युति, वैभव आदि की दृष्टि से चन्द्र आदि से न हीनता होती है, न तुल्यता होती है। 167. एगमेगस्स णं भन्ते ! चन्दस्स केवइया महग्गहा परिवारो, केवइमा णवखत्ता परिवारो, केवइमा तारागणकोडाकोडीनो पण्णतायो ? गोयमा ! अट्ठासीइ महग्गहा परिवारो, अट्ठावीसं णक्खत्ता परिवारो, छावटि-सहस्साई णव सया पण्णत्तरा तारागणकोडाकोडोप्रो पण्णत्तानो। [167] भगवन् ! एक एक चन्द्र का महाग्रह-परिवार कितना है, नक्षत्र-परिवार कितना है तथा तारागण-परिवार कितना कोडाकोड़ी है ? गौतम ! प्रत्येक चन्द्र का परिवार 88 महाग्रह हैं, 28 नक्षत्र हैं तथा 66675 कोडाकोड़ी तारागण हैं, ऐसा बतलाया गया है। गति-क्रम 198. मन्दरस्स गं भन्ते ! पब्वयस्स केवइयाए अबाहाए जोइसं चार चरइ / गोयमा ! इक्कारसहि इक्कवीसेहि जोपण-सएहि अवाहाए जोइसं चार चरइ / लोगंतानो णं भन्ते ! केवइयाए अबाहाए जोइसे पण्णत्ते ? गोयमा ! एक्कारस एक्कारसेहिं जोत्रण-सएहि प्रबाहाए जोइसे पण्णत्ते। धरणितलानो णं भन्ते' ! सहि णउएहि जोअण-सएहि जोइसे चारं चरइत्ति, एवं सूरविमाणे अहिं सहि, चंद-विमाणे अहि असोएहि, उरिल्ले तारारूवे नहिं जोपण-सहिं चारं चरह। जोइसस्स णं भन्ते ! हेटिल्लाओ तलाओ केवइयाए अवाहाए सूर-विमाणे चारं चरइ ? गोयमा ! दहि जोप्रणेहि अबाहाए चारं चरइ, एवं चन्द विमाणे गउईए जोधणेहिं चारं चरइ, उरिल्ले तारारूवे दसुत्तरे जोअण-सए चारं चरइ, सूर-विमाणाप्रो चन्द-विमाणे असीईए जोप्रणेहिं चारं चरइ, सूर-विमाणाप्रो जोत्रण-सए उवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ, चन्द-विमाणाम्रो वीसाए जोनहि उबरिल्ले णं तारारूवे चारं चरइ / 1. यहां इतना योजनीय है-'उद्धं उप्पइत्ता केवइमाए अबाहाए हिटिल्ले जोइसे चारं चरह ?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org