Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 452
________________ सप्तम वक्षस्कार] [391 देवों को काल-स्थिति 205. चंदविमाणे णं भंते ! देवाणं केवइ कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं चउभागपलिओवमं, उक्कोसेणं पलिनोवमं वाससयसहस्समभहिअं। चंदविमाणे णं देवीणं जहण्णेणं चउभागपलिग्रोवम उक्कोसेण अद्धपलियोवमं पण्णासाए वाससहस्से हिमन्भहि। सूरविमाणे देवाणं जहण्णेणं चउभागपलिओवमं उक्कोसेणं पलिप्रोवमं वाससहस्समम्भहियं / सूरविमाणे देवीणं जहण्णणं चउब्भागपलिग्रोवम उक्कोसेणं प्रद्धपलिओमं पंचहि वाससवएहि प्रभाहियं / गहबिमाणे देवाणं जहण्णेणं चउम्भागपलिग्रोवमं, उक्कोसेणं पलिओवमं / गहविमाणे देवाणं जहण्णेणं चउभागपलिप्रोवमं उक्कोसेणं अद्धपलिनोवमं / णक्खत्तविमाणे देवाणं जहण्णणं चउम्भागपलिश्रोवम उक्कोसेणं प्रद्धपलिनोवमं / णक्खत्तविमाणे देवीणं जहण्णेणं चउम्भागपलिश्रोवम उक्कोसेणं साहिअं चउम्भागपलिओवमं / ताराविमाणे देवाणं जहणणं अट्ठभागपलिप्रोवम उक्कोसेणं चउभागपलिओवमं / ताराविमाणे देवीणं जहणणं अट्ठभागपलिग्रोवमं उक्कोसेणं साइरेगं अट्ठभागपलिओवमं / [205] भगवन् ! चन्द्र-विमान में देवों की स्थिति कितने काल की होती है ? गौतम ! चन्द्र-विमान में देवों की स्थिति जघन्य-कमसे कम : पल्योपम तथा उत्कृष्टअधिक से अधिक एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम होती है। चन्द्र-विमान में देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम तथा उत्कृष्ट पचास हजार वर्ष अधिक अर्ध पल्योपम होती है / सूर्य-विमान में देवों की स्थिति जघन्य : पल्योपम तथा उत्कृष्ट एक हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम होती है। सूर्य-विमान में देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम तथा उत्कृष्ट पाँच सौ वर्ष अधिक अर्ध पल्योपम होती है। ग्रह-विमान में देवों की स्थिति जघन्य पल्योपम तथा उत्कृष्ट एक पल्योपम होती है / ग्रहविमान में देवियों की स्थिति जघन्य र पल्योपम तथा उत्कृष्ट अर्ध पत्योपम होती है। नक्षत्र-विमान में देवों की स्थिति जघन्य : पल्योपम तथा उत्कृष्ट अर्ध पल्योपम होती है। नक्षत्र-विमान में देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम तथा उत्कृष्ट कुछ अधिक : पल्योपम होती है / 45. अगस्ति, 46. माणवक, 47. कामस्पर्श, 48. धुरक, 49. प्रमुख, 50. विकट, 51. विसन्धिकल्प, 52. तथाप्रकल्प, 53. जटाल, 54. अरुण, 55. अग्नि, 56. काल, 57. महाकाल, 58, स्वस्तिक, 59. सौवस्तिक 60. वर्धमानक, 61. तथाप्रलम्ब, 62. नित्यालोक, 63. नित्योद्योत, 64. स्वयंप्रभ, 65. अवभास, 66. श्रेयस्कर, 67. क्षेमकर, 68. आभङ्कर, 69. प्रभङ्कर, 70. बोद्धव्यअरजा, 71. विरजा, 72. तथाअशोक, 73. तथावीतशोक, 74. विमल, 75. वितत, 76. विवस्त्र, 77. विशाल, 78. शाल, 79. सुनत, 80, अनिवृत्ति, 81. एकजटी, 82. द्विजटी, 83. बोद्धव्यकर, 84. करिक, 85. राजा, 86. अर्गल, 87. बोद्धव्य पुष्पकेतु, 88, भावकेतु / द्विगुणित करने पर ये 176 होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480