Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सप्तम वक्षस्कार] [339 गोयमा! ताहे चत्तारि पंच वा सामाणिमा देवा तं ठाणं उपसंपज्जित्ता णं विहरंति जाव तत्थ अण्णे इंवे उववण्णे भवह। इंदट्ठाणे णं भंते ! केवइअं कालं उववाएणं विरहिए ? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं छम्मासे उववाएणं विरहिए। बहिना णं भंते ! माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चंदिम-(सूरिअ-गहगण-णक्खत्त-) तारारूवातं चेव अव्वं णाणत्तं विमाणोववष्णगा णो चारोववष्णगा, चारठिईआ णो गइरइया णो गइसमावण्णगा। पक्किट्ठग-संठाण-संठिएहि जोअण-सय-साहस्सिएहिं तावखित्तेहि सय-साहस्सिआहि वेउन्विआहिं बाहिराहि परिसाहि महया हयणट्ट (गोमवाइअतंतीतलतालतुडिअघणमुइंगपडुप्पवाइअरवेणं दिव्वाई भोगभोगाई) भुजमाणा सुहलेसा मंदलेसा मंदातवलेसा चित्तंतरलेसा अण्णोण्णसमोगाढाहि लेसाहि कूडाविव ठाणठिा सम्वनो समन्ता ते पएसे प्रोभासंति उज्जोति पभा तित्ति। तेसि णं भंते ! देवाणं जाहे इंदे चुए से कहमियाणि पकरेन्ति (गोयमा ! ताहे चत्तारि पंच वा सामाणिआ देवा तं ठाणं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति जाव तत्थ अण्णे इंदे उववण्णे भवइ / इंदट्ठाणे णं भंते ! केवइअं कालं उववाएणं विरहिए ? गोयमा !) जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं छम्मासा इति / [174] भगवन् ! उन ज्योतिष्क देवों का इन्द्र जब च्युत (मृत) हो जाता है, तब इन्द्रविरहकाल में देव कसा करते हैं-किस प्रकार काम चलाते हैं ? गौतम ! जब तक दूसरा इन्द्र उत्पन्न नहीं होता, तब तक चार या पांच सामानिक देव मिल कर इन्द्र-स्थान का परिपालन करते हैं-स्थानापन्न के रूप में कार्य-संचालन करते हैं। भगवन् ! इन्द्र का स्थान कितने समय तक नये इन्द्र की उत्पत्ति से विरहित रहता है ? गौतम ! वह कम से कम एक समय तथा अधिक से अधिक छह मास तक इन्द्रोत्पत्ति से विरहित रहता है। भगवन् ! मानुषोत्तर पर्वत के बहिर्वर्ती चन्द्र (सूर्य, ग्रह, नक्षत्र एवं) तारे रूप ज्योतिष्क देवों का वर्णन पूर्वानुरूप जानना चाहिए / इतना अन्तर है-वे विमानोत्पन्न हैं, किन्तु चारोपपन्न नहीं है / वे चारस्थितिक हैं, गतिरतिक नहीं हैं, गति-समापन्न नहीं हैं। पकी ईंट के आकार में संस्थित, चन्द्रसूर्यापेक्षया लाखों योजन विस्तीर्ण तापक्षेत्रयुक्त, नानाविध विकवित रूप धारण करने में सक्षम, लाखों बाह्य परिषदों से संपरिक्त ज्योतिष्क देव (नाटयगीत-वादन रूप त्रिविध संगीतोपक्रम में जोर जोर से बजाये जाते (तन्त्री-तल-ताल-श्रुटित-घन-मृदंग इन) वाद्यों से उत्पन्न मधुर ध्वनि के आनन्द के साथ दिव्य भोग भोगने में अनुरत, सुखलेश्यायुक्त-' शीतकाल की सी कड़ी शीतलता से रहित, प्रियकर, सुहावनी शीतलता से युक्त, मन्दलेश्यायुक्त 1. चन्द्रों के लिए। 2. सूर्यों के लिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org