Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [293 मुक्तामाला अपने से आधी ऊँची, अर्ध कुम्भिकापरिमित चार मुक्तामालाओं द्वारा चारों ओर से परिबेष्टित है। उन मालाओं में तपनीय-स्वर्ण निर्मित लंबसक-गेंद के आकार के प्राभरणविशेष--- लूबे लटकते हैं। वे सोने के पातों से मण्डित हैं। वे नानाविध मणियों एवं रत्नों से निर्मित 'हारों-अठारह लड़ के हारों, अर्धहारों-नौ लड़ के हारों से उपशोभित हैं, विभूषित हैं, एक दूसरी से थोड़ी-थोड़ी दूरी पर अवस्थित हैं। पूर्वीय-पुरवैया आदि वायु के झोंकों से धीरे-धीरे हिलती हुई, परस्पर टकराने से उत्पन्न (उत्तम, मनोज्ञ, मनोहर) कानों के लिए तथा मन के लिए शान्तिप्रद शब्द से प्रास-पास के प्रदेशों स्थानों को प्रापूर्ण करती हुई-भरती हुई वे अत्यन्त सुशोभित होती हैं। उस सिंहासन के पश्चिमोत्तर-वायव्य कोण में, उत्तर में एवं उत्तरपूर्व में-ईशान कोण में शक के 84000 सामानिक देवों के 84000 उत्तम आसन हैं, पूर्व में पाठ प्रधान देवियों के आठ उत्तम प्रासन हैं, दक्षिण-पूर्व में-आग्नेय कोण में प्राभ्यन्तर परिषद् के 12000 देवों के 12000, दक्षिण में मध्यम परिषद् के 14000 देवों के 14000 तथा दक्षिण-पश्चिम में-नैऋत्य कोण में बाह्म परिषद् के 16000 देवों के 16000 उत्तम आसन हैं। पश्चिम में सात अनीकाधिपतियोंसेनापति-देवों के सात उत्तम अासन हैं। उस सिंहासन की चारों दिशाओं में चौरासी चौरासी हजार आत्मरक्षक-अंगरक्षक देवों के कुल 84000 x 4 = तीन लाख छत्तीस हजार उत्तम आसन हैं / एतत्सम्बद्ध और सारा वर्णन (राजप्रश्नीयसूत्र में वणित) सूर्याभदेव के विमान के सदृश है। इन सबकी विकुर्वणा कर पालक देव शक्रेन्द्र को निवेदित करता है-विमान निर्मित होने की सूचना देता है। शक्रेन्द्र का उत्सवार्थ प्रयारण 150. तए णं से सक्के (विदे, देवराया) हट्ठहिअए दिव्वं जिणेदाभिगमणजुग्गं सव्वालंकारविभूसिनं उत्तरवेउठिय रूवं विउव्वइ 2 ता अहिं अग्गहिसीहि सपरिवाराहि, गट्टाणीएणं गन्धवाणीएण य सद्धि तं विमाणं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे 2 पुखिल्लेणं तिसोवाणेणं दुरुहइ 2 ता (जेणेव सोहासणे तेणेव उवागच्छइ 2 ता) सोहासणंसि पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णेत्ति, एवं चेव सामाणिआदि उत्तरेणं तिसोवाणेणं दुरूहित्ता पत्तेअं२ पुटवष्णत्थेसु भद्दासणेसु णिसीति / अवसेसा य देवा देवीओ अ दाहिणिल्लेणं तिसोवाणेणं दुरूहित्ता तहेव (पत्तेअं 2 पुरवण्णत्थेसु भद्दासणेसु) जिसीप्रति / तए णं तस्स सक्कस्स तंसि दुरूढस्स इमे अट्ठमंगलगा पुरओ अहाणुपुब्वीए संपट्टिा, सयणंतरं च गं पुण्णकलसभिंगारं दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा य सणरइन-पालो-दरिसणिज्जा बाउ प्रविजयदेजयन्ती असमूसिआ गगणतलमणुलिहंती पुरो प्रहाणुपुन्वीए संपस्थिमा, तयणन्तरं छत्तभिंगारं तयणंतर च गं वइरामय-वट्ट-लट्ठ-संठिन-सुसिलिट्ठ-परिघट्ट-मट्ठ-सुपइटिए विसिठे, अणेगवरपञ्चवण्णकुडभीसहस्सपरिमण्डिाभिरामे, वाउ प्रविजयवेजयन्ती-पडागा-छत्ताइच्छत्तकलिए, तुगे, गयणतलमणुलिहंतसिहरे, जोअणसहस्समूसिए, महहमहालए महिंदज्झए पुरनो अहाणुपुब्बीए संपत्थिएत्ति, तयणन्तरं च णं सरूवनेवत्थपरिअच्छिासुसज्जा, सव्वालंकारविभूसिमा पञ्च प्रणिमा पञ्च अणिआहिवाणो (अण्णे देवा य) संपद्विधा, तयणन्तरं च णं बहवे प्राभिषोगिना देवा य देवीमो अ Jain Education International For Private & Personal Use Only * www.jainelibrary.org