Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सप्तम वक्षस्कार [333 गौतम ! अन्धकार-स्थिति तब ऊर्ध्वमुखी कदम्ब पुष्प का संस्थान लिये होती है, वैसे आकार की होती है / वह भीतर संकीर्ण-सँकड़ी, बाहर विस्तीर्ण-चौड़ी (भीतर से वृत्त-अर्ध वलयाकार, बाहर से पृथुलता लिये विस्तृत, भीतर से अंकमुख-पद्मासन में अवस्थित पुरुष के उत्संग-गोदरूप आसन-बन्ध के मुख-अग्रभाग की ज्यों तथा बाहर से गाड़ी की धुरी के अग्नभाग की ज्यों होती है / उसकी सर्वाम्यन्तर बाहा की परिधि मेरु पर्वत के अन्त में 63246 योजन-प्रमाण है / भगवन् ! यह परिधि का परिमाण कैसे है ? गौतम ! जो मेरु पर्वत की परिधि है, उसे दो से गुणित किया जाए, गुणनफल को दस से विभक्त किया जाए, उसका भागफल (मेरु-परिधि 31623 योजन 42-63246 -1063246) इस परिधि का परिमाण है। उसकी सर्वबाह्य बाहा की परिधि लवण-समुद्र के अन्त में 632453. योजन-परिमित है। भगवन् यह परिधि-परिमाण किस प्रकार है ? गौतम ! जो जम्बूद्वीप की परिधि है, उसे दो से गुणित किया जाए, गुणनफल को दस से विभक्त किया जाए, उसका भागफल (जम्बूद्वीप की परिधि 316228 योजन x 2=632456 : 10=632456 योजन) इस परिधि का परिमाण है। भगवन् ! तब अन्धकार क्षेत्र का आयाम लम्बाई कितनी बतलाई गई है ? गौतम ! उसको लम्बाई 78333 3 योजन बतलाई गई है। भगवन् ! जब सूर्य सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है तो ताप-क्षेत्र का संस्थान कैसा बतलाया गया है ? गौतम ! ऊर्ध्वमुखी कदम्ब-पुष्प संस्थान जैसा उसका संस्थान बतलाया गया है / अन्य वर्णन पूर्वानुरूप है। इतना अन्तर है-पूर्वानुपूर्वी के अनुसार जो अन्धकार-संस्थिति का प्रमाण है, वह इस पश्चानुपूर्वी के अनुसार ताप-संस्थिति का जानना चाहिए। सर्वाभ्यन्तर मण्डल के सन्दर्भ में जो ताप-क्षेत्र-संस्थिति का प्रमाण है, वह अन्धकार-संस्थिति में समझ लेना चाहिए। सूर्य-परिदर्शन 169. जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिमा उग्गमणमुहत्तंसि दूरे अ मूले अ दीसंति, मझतिअमुहुत्तंसि मूले अदूरे अ दोसंति, प्रत्थमणमुहत्तंसि दूरे अ मूले अ दीसंति ? हंता गोयमा ! तं चेव (मूले अ दूरे अ दीसंति / ) जम्बुद्दीने णं भंते ! सूरिमा उग्गमणमुहुत्तंसि अ मज्झतिन-मुहत्तंसि अ प्रत्थमणमुहुत्तसि अ सम्वत्थ समा उच्चतेणं? हंता तं चेव (सम्वत्थ समा) उच्चतेणं। जइ णं भंते ! जम्बुद्दीवे दीवे सूरिया उग्गमणमुहत्तंसि प्र मज्झतिअ-मुहत्तंसि अप्रत्थमणमुहत्तंसि प्र सव्वत्थ समा उच्चतेणं, कम्हा णं भंते ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org