Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पंचम वक्षस्कार] [291 सहस्राक्ष-इसका शाब्दिक अर्थ हजार नेत्र वाला है। इन्द्र का यह नाम पड़ने के पीछे एक पौराणिक कथा बहुत प्रसिद्ध है / ब्रह्मवैवर्त पुराण में उल्लेख है-इन्द्र एक बार मन्दाकिनी के तट पर स्नान करने गया। वहाँ उसने गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या को नहाते देखा। इन्द्र की कामावेश से भ्रष्ट हो गई। उसने देव-माया से गौतम ऋषि का रूप बना लिया और अहल्या का शील-भंग किया। इसी बीच गौतम वहाँ पहुंच गये / वे इन्द्र पर अत्यन्त क्रुद्ध हुए, उसे फटकारते हुए कहने लगे-तुम तो देवताओं में श्रेष्ठ समझे जाते हो, ज्ञानी कहे जाते हो। पर, वास्तव में तुम नीच, अधम, पतित और पापी हो, योनिलम्पट हो / इन्द्र की निन्दनीय योनिलम्पटता जगत् के समक्ष प्रकट रहे, इसलिए गौतम ने उसकी देह पर सहस्र योनियाँ बन जाने का शाप दे डाला / तत्काल इन्द्र की देह पर हजार योनियाँ उद्भूत हो गईं। इन्द्र घबरा गया, ऋषि के चरणों में गिर पड़ा। बहुत अनुनय-विनय करने पर ऋषि ने इन्द्र से कहा-पूरे एक वर्ष तक तुम्हें इस घृणित रूप का कष्ट झेलना ही होगा। तुम प्रतिक्षण योनि की दुर्गन्ध में रहोगे / तदनन्तर सूर्य की प्राराधना से ये सहस्र 'योनियाँ नेत्ररूप में परिणत हो जायेंगी-तुम सहस्राक्षहजार नेत्रों वाले बन जाओगे / आगे चलकर वैसा ही हुआ, एक वर्ष तक वैसा जघन्य जीवन बिताने के बाद इन्द्र सूर्य की प्राराधना से सहस्राक्ष बन गया / ' . . . . पालकदेव द्वारा विमानविकुर्वरणा ... 146. तए णं से पालयदेवे सक्केणं देविदेणं देवरण्णा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठ जाव वेउविप्रसमुग्याएणं समोहणिता तहेव करेइ इति, तस्स णं दिव्वस्स जाणविमाणस तिदिसि तिसोवाणपडिरूवगा, वणो, तेसि गं पडिरूवगाणं पुरो पत्तेनं 2 तोरणा, वणो जाव पडिरूवा।। तस्स णं जाणविमाणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे, से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा जाव' दीविअचम्मेइ वा अणेगसंकुकीलकसहस्सवितते प्रावड-पच्चावड-सेढि-पसेढि-सुत्थिअ-सोवत्थिन बदमाणपूसमाणव- मच्छंडग- मगरंडग-जार-मार-फुल्लावली- पउमपत्त-सागर-तरंग-वसंतलयपउमलयभत्तिचितेहि सच्छाएहि सप्पभेहिं समरोहएहि सउज्ज़ोहिं णाणाविहपञ्चवणेहि मणीहि उवसोभिए 2, तेसि गं मणीणं वण्णे गन्धे फासे अभाणिप्रवे जहा रायप्यसेणइज्जे। .. तस्स णं भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए पिच्छाघरमण्ड़वे प्रणेगखम्भसयसण्णिविट्ठे, वण्णओ जाव पडिरूवे, तस्स उल्लोए पउमलयभत्तिचित्ते जाव' सव्वतवणिज्जमए जाव' (पासादीए, वरिसणिज्जे, अभिरुवे,) पडिरूवे। . . तस्स णं मण्डवस्स बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागसि महं एगा मणिपेढिया, अट्ट जोअणाई प्रायामविक्खम्भेणं, चत्तारि जोअणाई बाहल्लेणं, सब्वमणिमयी वण्णो / तीए उवरि महं एगे सोहासणे वण्णनो, तस्सुरि महंः एगे विजयदूसे सव्वरयणामए वण्णओ, तस्स मज्झदेसभाए 1. ब्रह्मवैवर्त पुराण 4-47,19-32. :: . . . 2. देखें सूत्र संख्या 44 3. देखें सूत्र संख्या 6 . . 4. देखें सूत्र संख्या 4 5. देखें सूत्र संख्या 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org