Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ पञ्चम वक्षस्कार [307 जाव' पज्जुवासइ / एवं जहा अच्चुअस्स तहा जाव ईसाणस्स भाणिअन्वं, एवं भवणवइवाणमन्तरजोइसिमा य सूरपज्जवसाणा सएणं परिवारेणं पत्तेअं२ अभिसिचंति / तए णं से ईसाणे देविन्दे देवराया पञ्च ईसाणे विउव्वइ 2 ता एगे ईसाणे भगवं तित्थयरं करयलसंपुडेणं गिण्हइ 2 ता सोहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे, एगे ईसाणे पिटुसो आयवत्तं धरेइ, दुवे ईसाणा उभो पासिं चामरुक्खेवं करेन्ति, एगे ईसाणे पुरनो सूलपाणी चिट्ठइ / तए णं से सक्के देविन्दे, देवराया पाभिओगे देवे सद्दावेइ 2 ता एसोवि तह चेव अभिसेआत्ति देइ तेऽवि तह चेव उवणेन्ति / तए णं से सक्के देविन्दे, देवराया भगवओ तित्थयरस्स चउद्दिसि चत्तारि धक्लवसभे विउव्वेइ / सेए संखदलविमल-निम्मलदधिधणगोखीरफेणरयणिगरप्पगासे पासाईए दरसणिज्जे अभिरुवे पडिरूवे / तए णं तेसि चउण्हं धवलवसभाणं अहिं सिंगेहितो अट्ट तोअधाराओ णिग्गच्छन्ति, तए गं तारो अट्ट तोप्रधाराप्रो उद्धं वेहासं उप्पयन्ति 2 ता एगो मिलायन्ति 2 त्ता भगवनो तित्थयरस्स मुद्धाणंसि निवयंति। तए णं सक्के देविन्दे, देवराया चउरासीईए सामाणिसाहस्सीहिं एअस्सवि तहेव अभिसेग्रो भाणिअन्वो जाव णमोऽत्थु ते प्ररहओत्ति कटु वन्दह णमंसह जाव' पज्जुवासइ। [155] सपरिवार अच्युतेन्द्र विपुल, बृहत् अभिषेक-सामग्री द्वारा स्वामी का-भगवान् तीर्थकर का अभिषेक करता है / अभिषेक कर वह हाथ जोड़ता है, अंजलि बाँधे मस्तक से लगाता है, 'जय-विजय' शब्दों द्वारा भगवान् की वर्धापना करता है, इष्ट-प्रिय वाणी द्वारा 'जय-जय' शब्द उच्चारित करता है। वैसा कर वह रोएँदार, सुकोमल, सुरभित, काषायित---हरीतकी, विभीतक, आमलक आदि कसैली वनौषधियों से रंगे हुए अथवा कषाय-लाल या गेरुए रंग के वस्त्र-तौलिये द्वारा भगवान् का शरीर पोंछता है। शरीर पोंछकर वह उनके अंगों पर ताजे गोशीर्ष चन्दन का लेप करता है / वैसा कर नाक से निकलने वाली हवा से भी जो उड़ने लगें, इतने बारीक और हलके, नेत्रों को आकृष्ट करने वाले, उत्तम वर्ण एवं स्पर्शयुक्त, घोड़े के मुख की लार के समान कोमल, अत्यन्त स्वच्छ, श्वेत, स्वर्णमय रों से अन्तःखचित दो दिव्य वस्त्र परिधान एवं उत्तरीय उन्हें धारण कराता है। वैसा कर वह उन्हें कल्पवृक्ष की ज्यों अलंकृत करता है। (पुष्प-माला पहनाता है), नाट्य-विधि प्रदर्शित करता है, उजले, चिकने, रजतमय, उत्तम रसपूर्ण चावलों से भगवान् के आगे पाठ-आठ मंगल-प्रतीक प्रालिखित करता है, जैसे-१. दर्पण, 2. भद्रासन, 3. वर्धमान, 4. वर कलश, 5. मत्स्य, 6. श्रीवत्स, 7. स्वस्तिक तथा 8. नन्द्यावर्त / उनका आलेखन कर वह पूजोपचार करता है। गुलाब, मल्लिका, चम्पा, अशोक, पुन्नाग, आम्र-मंजरी, नवमल्लिका, बकुल, तिलक, कनेर, कुन्द, कुब्जक, कोरण्ट, मरुक्क तथा दमनक के उत्तम सुगन्धयुक्त फूलों को कचग्रह-रति-कलह में प्रेमी द्वारा प्रेयसी के केशों को गृहीत किये जाने की ज्यों गृहीत करता है--कोमलता से हाथ में लेता है। वे सहज रूप में उसकी हथेलियों से गिरते हैं, 1. देखें सूत्र संख्या 68 2. देखें सूत्र संख्या 68 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org