Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ चतुर्थ वक्षस्कार [215 बहवे वइरामया णागदन्तगा पण्णत्ता। तेसु णं वइरामएसु नागदन्तेसु बहवे किण्हसुत्तवग्धारिश्रमल्लदामकलावा जाव सुकिल्लसुत्तवग्धारिअमल्लदामकलावा / ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा) दामा चिट्ठतित्ति / एवं गोमाणसिआओ, गवरं धूवघडिआओत्ति। __ तासि गं सुहम्माणं सभाणं अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्त / मणियेढिआ दो जोप्रणाई आयामविक्खम्भेणं, जोअगं बाहल्लेणं। तासि गं मणिपेढिआणं उपि माणवए चेइअखम्भे महिंदज्झयप्पमाणे उरि छक्कोसे ओगाहित्ता हेट्ठा छक्कोसे वन्जित्ता जिणसकहानो पण्णत्ताओत्ति / माणवगस्स पुग्वेणं सोहासणा सपरिवारा, पच्चत्थिमेणं सणिज्जवण्णो / सयणिज्जाणं उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए खुड्डगहिंदज्झया, मणिपेढिआविहूणा महिंदज्मयप्पमाणा। तेसि प्रवरेणं चोष्फाला पहरणकोसा। तत्थ णं बहवे फलिहरयणपामुक्खा (बहवे पहरणरयणा सन्निक्खित्ता) चिट्ठति / सुहम्माणं उपि अट्ठमंगलगा। तासि णं उत्तरपुरस्थिमेणं सिद्धाययणा, एस चेव जिणघराणवि गमोत्ति। णवरं इमं जाणत्तं-एतेसि णं बहुमज्झदेसभाए पत्तेअं२ मणिपेढिआओ / दो जोअणाई आयामविक्खम्भेणं, जोअणं बाहल्लेणे। तासि उप्पि पत्तेअं 2 देवच्छंदया पण्णत्ता। दो जोअणाई पायामविक्खम्भेणं, साइरेगाइं दो जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं, सव्वरयणामए। जिणपडिमा वण्णश्रो जाव धूवकडच्छुगा, एवं अक्सेसाणवि सभाणं जाव उववायसभाए, सयणिज्जं हरो अ। अभिसेअसभाए बहु आभिसेक्के भंडे, अलंकारिअसभाए बहु अलंकारिअभंडे चिट्ठइ, ववसायसभासु पुत्थयरयणा, गंदा पुक्खरिणीओ, बलिपेढा, दो जोअणाई आयामविक्खम्भेणं, जोअणं बाहल्लेणं जावत्ति उववानो संकप्पो, अभिसेअबिहूसणा य बयसाओ। अच्चणिसुधम्मगमो, जहा य परिवारणा इद्धी // 1 // जावइयंमि पमाणंमि, हुंति जमगाओ जोलवंताओ। तावइअमन्तरं खलु, जमगदहाणं दहाणं च // 2 // [105] भगवन् ! उत्तरकुरु में यमक नामक दो पर्वत कहाँ बतलाये गये हैं ? गौतम ! नीलवान् वर्षधरपर्वत के दक्षिण दिशा के अन्तिम कोने से 834 3 योजन के अन्तराल पर शीतोदा नदी के दोनों--पूर्वी, पश्चिमी तट पर यमक संज्ञक दो पर्वत बतलाये गये हैं। वे 1000 योजन ऊँचे, 250 योजन जमीन में गहरे, मूल में 1000 योजन, मध्य में 750 योजन तथा ऊपर 500 योजन लम्बे-चौड़े हैं। उनकी परिधि मूल में कुछ अधिक 3162 योजन, मध्य में कुछ अधिक 2372 योजन एवं ऊपर कुछ अधिक 1581 योजन है। वे मूल में विस्तीर्ण-चौड़े, मध्य में संक्षिप्त-संकड़े और ऊपर-चोटी पर तनुक पतले हैं। वे यमकसंस्थानसंस्थित हैं—एक साथ उत्पन्न हुए दो भाइयों के आकार के सदृश अथवा यमक नामक पक्षियों के आकार के समान हैं / वे सर्वथा स्वर्णमय, स्वच्छ एवं सुकोमल हैं। उनमें से प्रत्येक एक-एक पद्मवरवेदिका द्वारा तथा एक-एक वन-खण्ड द्वारा घिरा हुआ है। वे पद्मवरवेदिकाएँ दो-दो कोश ऊँची हैं / पाँच-पाँच सौ धनुष चौड़ी हैं / पद्मवरवेदिकाओं तथा वन-खण्डों का वर्णन पूर्ववत् है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org