Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 276] [जमीपप्रज्ञप्तिसूत्र बाग को जल्दी न करते हुए, चपलता न करते हुए, उतावल न करते हुए लगन के साथ, चतुरतापूर्वक सब ओर से झांड-बुहार कर साफ कर देता है, उसी प्रकार वे दिक्कुमारियाँ संवर्तक बायु द्वारा तिनके, पत्ते, लकड़ियां, कचरा, अशुचि-अपवित्र गन्दे, अचोक्ष-मलिन, पूतिक-सड़े हुए, दुर्गन्धयुक्त पदार्थों को उठाकर. परिमण्डल से बाहर एकान्त में-अन्यत्र डाल देती हैं--परिमण्डल को संप्रमाजित कर स्वच्छ बना देती हैं। फिर वे दिक्कुमारिकाएँ भगवान् तीर्थकर तथा उनकी माता के पास आती हैं। उनसे न अधिक समीप तथा न अधिक दूर अवस्थित हो अागान-मन्द स्वर से गान करती हैं, फिर क्रमशः परिगान-उच्च स्वर से गान करती हैं। ऊर्ध्वलोकवासिनी दिक्कुमारिकाओं द्वारा उत्सव [146] तेणं कालेणं तेणं समएणं उद्धलोग-वत्थब्वानो अट्ट दिसाकुमारी-महत्तरियानो सरहिं 2 कूहि, सएहि 2 भवहिं, सरहिं 2 पासाय-वडेंसहि पत्तेअं 2 चहि सामाणिनसाहस्सोहि एवं तं चेव पुन्व-वण्णि (चहि महत्तरियाहि सपरिवाराहि, सहि अणिएहि, सतहि अणिमाहिवईहि, सोलसहिं प्रायरक्खदेवसाहस्सोहिं, अण्णेहि अ बहूहि भवणवइवाणमन्तरेहि देवेहि, देवीहि अ सद्धि संपरिवुडानो महया ह्यणट्टगीयवाइन जाब भोगभोगाई भुजमाणीप्रो) बिहरंति, तं जहा-- मेहंकरा 1 मेहवई 2, सुमेहा 3 मेहमालिनी 4 / सुवच्छा 5 वच्छमित्ता य 6, वारिसेणा 7 बलाहगा // 1 // तए णं तासि उद्धलोगवत्थव्वाणं अट्ठण्हं दिसाकुमारीमहत्तरित्राणं पत्तेअं 2 प्रासणाई चलन्ति, एवं तं चेव पुत्ववण्णिअं भाणिनव्वं जाव अम्हे णं देवाणुप्पिए ! उद्धलोगवत्थस्वासो अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरित्रानो जेणं भगवो तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो, तेणं तुम्भेहि ण भाइअव्वं ति कट्ट, उत्तर-पुरस्थिमं दिसीभागं प्रवक्कमन्ति 2 ता (वेउविसमुग्धाएणं समोहणंति 2 ता जाव दोच्चंपि वेउन्वित्रसमुग्घाएणं समोहणंति 2 त्ता) अभवद्दलए विउध्वन्ति 2 ता (से जहाणामए कम्मदारए जाव सिप्पोवगए एगं महंतं दगवारगं वा दगकुभयं वा दगथालगं वा दगकलसं वा दभिंगारं वा गहाय रायंगणं वा अतुरियं जाव समता प्रावरिसिज्जा, एवमेव तानोवि उद्धलोगवस्थव्वाग्रो अट्ट दिसाकुमारीमहत्तरियानो अभवद्दलए विउन्वित्ता खिप्पामेव पतणतणायंति 2 ता खिप्पामेव विज्जुअायंति 2 ता भगवनो तित्थगरस्स जम्मण-भवणस्स सव्वनो समन्ता जोत्रणपरिमंडलं णिच्चोअगं, नाइमट्टिगं, पविरलफुसिय, रयरेणविणासणं, दिव्वं सुरभिगन्धोदयवासं वासंति 2 ता) तं निहयरयं, गट्ठरयं, भट्टरयं, पसंतरयं, उवसंतरयं करेंति 2 खिप्पामेव पच्चुवसमन्ति, एवं पुप्फवद्दलंसि पुप्फवासं वासंति, वासित्ता (से जहाणामए मालागारदारए सिमा जाव सिप्पोवगए एग महं पुष्फछज्जिअं वा पुप्फपडलगं वा पुष्फचंगेरीअं वा गहाय रायंगणं वा जाव समन्ता कयग्गहगहिप्रकरयल-पन्भट्ठ-विप्पमुक्केणं दसवण्णेणं कुसुमेणं पुष्फपुजोवयारकलिअं करेति, एवमेव ताम्रो वि उद्धलोगवत्थव्वानो जाव पुष्फवद्दलए विउन्वित्ता खिप्पामेव पतणतणायन्ति जाव जोप्रणपरिमण्डलं जलय-थलयभासुरप्पभूयस्स बिटट्ठाइस्स दसद्धवष्णस्स कुसुमत्स जाणुस्सेहपमाणमित्तं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org