Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 270] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! इक्कारस कूडा पण्णता, तं जहा--सिद्धाययणकडे 1, सिहरिकरे, 2, हेरण्णवयकूडे 3, सुवण्णकूलाकूडे 4, सुरादेवीकडे 5, रत्ताकडे 6, लच्छीकडे 7, रत्तवईकडे 8, इलादेवीकूरे 6, एरवयफूडे 10, तिगिच्छिकूडे 11 / एवं सम्वेवि कूडा पंचसइमा, रायहाणीयो उत्तरेणं। से केणद्वेणं भन्ते ! एवमुच्चइ सिहरिवासहरपव्वए 2 ? गोयमा ! सिहरिमि वासहरपधए बहवे कूडा सिहरिसंठाणसंठिमा सव्वरयणामया सिहरी प्र इत्थ देवे जाव' परिवसइ, से तेणढे / [143] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत शिखरी नामक वर्षधर पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! हैरण्यवत के उत्तर में, ऐरावत के दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में शिखरी नामक वर्षधर पर्वत बतलाया गया है / वह चुल्ल हिमवान् के सदृश है। इतना अन्तर है-उसकी जीवा दक्षिण में है। उसका धनुपृष्ठभाग उत्तर में है / बाकी का वर्णन पूर्ववणित चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत के अनुरूप है। उस पर पुण्डरीक नामक द्रह है। उसके दक्षिणी तोरण से सुवर्णकूला नामक महानदी निकलती है / वह रोहितांशा की ज्यों पूर्वी लवणसमुद्र में मिलती है। यहाँ रक्ता तथा रक्तवती का वर्णन भी वैसा ही समझना चाहिए जैसा गंगा तथा सिन्धु का है। रक्ता महानदी पूर्व में तथा रक्तवती पश्चिम में बहती है / [अवशिष्ट वर्णन गंगा-सिन्धु की ज्यों है / भगवन् ! शिखरी वर्षधर पर्वत के कितने कूट बतलाये गये हैं ? गौतम ! उसके ग्यारह कूट बतलाये गये हैं.-१. सिद्धायतन कूट, 2. शिखरी कूट, 3. हैरण्यवत कूट, 4. सुवर्णकूला कूट, 5. सुरादेवी कूट, 6. रक्ता कूट, 7. लक्ष्मी कूट, 8. रक्तावती कूट, 6. इलादेवी कूट, 10. ऐरावत कूट, 11. तिगिच्छ कूट / ये सभी कूट पाँच-पाँच सौ योजन ऊँचे हैं / इनके अधिष्ठातृ देवों की राजधानियां उत्तर भगवन् ! यह पर्वत शिखरी वर्षधर पर्वत क्यों कहा जाता है ? गौतम ! शिखरी वर्षधर पर्वत पर बहुत से कूट उसी के-से आकार में अवस्थित हैं, सर्वरत्नमय हैं / वहाँ शिखरी नामक देव निवास करता है, इस कारण वह शिखरी वर्षधर पर्वत कहा जाता है। ऐरावत वर्ष 144. कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दोवे दीवे एरावए णामं वासे पण्णत्ते ? गोयमा ! सिहरिस्स उत्तरेणं, उत्तरलवणसमुहस्स दक्षिणेणं, पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चस्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं, एस्थ णं जम्बुद्दीवे दोवे एरावए णामं वासे पण्णत्ते। 1. देखें सूत्र संख्या 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org