Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ ___ _. तृतीय वक्षस्कार [143 स्वीकार किये / स्वीकार कर उनसे कहा तुम अब अपने स्थान पर जाओ। मैंने तुमको अपनी भुजाओं की छाया में स्वीकार कर लिया है ---मेरा हाथ तुम्हारे मस्तक पर है। तुम निर्भयभयरहित, निरुद्व ग-उद्वेग रहित–व्यथा रहित होकर सुखपूर्वक रहो। अब तुम्हें किसी से भी भय नहीं है / यों कहकर राजा भरत ने उनका सत्कार किया, सम्मान किया। उन्हें सत्कृत, सम्मानित कर विदा किया। तब राजा भरत ने सेनापति सुषेण को बुलाया और कहा-देवानुप्रिय ! जानो, पूर्वसाधित निष्कुट--कोणवर्ती प्रदेश की अपेक्षा दूसरे, सिन्धु महानदी के पश्चिम भागवर्ती कोण में विद्यमान, पश्चिम में सिन्धु महानदी तथा पश्चिमी समुद्र, उत्तर में क्षुल्ल हिमवान् पर्वत तथा दक्षिण में वैताढय पर्वत द्वारा मर्यादित-विभक्त प्रदेश को, उसके सम-विषम कोणस्थ स्थानों को साधित करो-विजित करो / वहाँ से उत्तम, श्रेष्ठ रत्नों को भेंट के रूप में प्राप्त करो। यह सब कर मुझे शीघ्र ही अवगत कराओ। इससे आगे का भाग दक्षिणी सिन्धु निष्कुट के विजय के वर्णन के सदृश है / वैसा ही यहाँ समझ लेना चाहिए। चुल्लहिमवंतविजय 78. तए णं दिव्ये चक्करयणे अण्णया कयाइ आउहघरसालानो पडिणिक्खमइ 2 ता अंतलिक्खपडिवणे जाव' उत्तरपुरच्छिमं दिसि चुल्लाहिमवंतपव्वयाभिमुहे पयाते यावि होत्था। तए णं से भरहे राया तं दिव्यं चक्करयणं (उत्तरपुरच्छिमं दिसि चुल्लाहिमवंतपव्वयाभिमुहे पयातं पासइ) चुल्लहिमवंतवासहरपव्ययस्स अदूरसामंते दुवालसयोजनायाम (णवजोअणवित्थिण्णं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारणिवेसं करेइ) चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स अट्टमभत्तं पगिण्हइ, तहेव जहा मागहतित्थस्स (हयगयरहपकरज़ोहकलिपाए सद्धि संपरिवुडे महया-भडचडगर-पहगरवंदपरिक्खित्ते चक्करयणदेसिअमग्गे अणेगरायवरसहस्साणुआयमग्गे महया उक्किटुसीहणायबोलकलकलरवेणं पक्खुभियमहा-) समुद्दरवभूअंपिव करेमाणे 2 उत्तरदिसाभिमुहे जेणेव चुल्लहिमवंतवासहरपव्वए तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता चुल्ल हिमवंतवासहरपब्धयं तिक्खुत्तो रहसिरेणं फुसइ, फुसित्ता तुरए णिगिण्हइ, णिगिहित्ता तहेव (रहं ठवेइ 2 ता धणु परामुसइ, तए णं तं अइरुग्गयबालचन्द-इंदधणुसंकासं वरमहिसदरिप्रदप्पिअदढ-घसिंगरइअसारं उरगवरपवरगवलपवर-परहुप्रभमरकुलणीलिणिद्धधंतधोअपर्ट्स णिउणोविअमिसिमिसिंतमणिरयणघंटिआजालपरिक्खित्तं तडिततरुणकिरणतवणिज्जबचिधं दद्दरमलयगिरिसिहरकेसरचामरवालद्धचंचिधं कालहरिअरत्तपीअसुक्किल्लबहुण्हारुणिसंपिणद्धजीवं जीविअंतकरणं चलजीवं धणू गहिऊण से परवई उसु च वरवइरकोडिअ वइरसारतोंड कंचणमणिकणगरयणधाइट्ठसुकयपुखं अणेगमणिरयणविविहसुविरइयनाचिधं वइसाहं ठाईऊण ठाणं) आयत्तकण्णायतं च काऊण उसुमुदारं इमाणि वयणाणि तत्थ भाणीय से परवई (हंदि सुणंतु भवंतो, बाहिरओ खलु सरस्स जे देवा णागासुरा सुवण्णा, तेसि खु णमो पणिक्यामि। हंदि सुणंतु भवतो, 1. देखें सूत्र संख्या 52 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org