Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 142] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र द्वारा, न अग्नि-प्रयोग द्वारा तथा न मन्त्र-प्रयोग द्वारा ही उपद्र त किया जा सकता है, रोका जा सकता है / ) देवानुप्रियो ! फिर भी हमने तुम्हारा अभीष्ट साधने हेतु राजा भरत के लिए उपसर्ग-विघ्न किया। अब तुम जानो, स्नान करो, नित्य-नैमित्तिक कृत्य करो, देह-सज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन आंजो, ललाट पर तिलक लगाओ, दुःस्वप्न आदि दोष-निवारण हेतु चन्दन, कुकुम, दधि, अक्षत आदि से मंगल-विधान करो / यह सब कर तुम गीली धोती, गीला दुपट्टा धारण किये हुए, वस्त्रों के नीचे लटकते किनारों को सम्हाले हए ----पहने हए वस्त्रों को भली भांति बाँधने में-जचाने में समय न लगाते हुए श्रेष्ठ, उत्तम रत्नों को लेकर हाथ जोड़े राजा भरत के चरणों में पड़ो, उसकी शरण लो। . उत्तम पुरुष विनम्र जनों के प्रति वात्सल्य-भाव रखते हैं, उनका हित करते हैं / तुम्हें राजा भरत से कोई भय नहीं होगा। यों कहकर वे देव जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में चले गये। __ मेघमुख नागकुमार देवों द्वारा यों कहे जाने पर वे आपात किरात उठे। उठकर स्नान किया, नित्य नैमित्तिक कृत्य किये, देह-सज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन प्रांजा, ललाट पर तिलक लगाया, दुःस्वप्न आदि दोष-निवारण हेतु चन्दन, कुकुम, दधि, अक्षत आदि से मंगल-विधान किया। यह सब कर गीली धोती एवं गीला दपटा धारण किये हाए. वस्त्रों के नीचे लटकते किनारे सम्हाले हए-पहने हुए वस्त्रों को भली भाँति बाँधने में भी–जचाने में भी समय न लगाते हुए श्रेष्ठ, उत्तम रत्न लेकर जहाँ राजा भरत था, वहाँ पाये / आकर हाथ जोडे, अंजलि बाँधे उन्हें मस्तक से लगाया। राजा भरत को ‘जय विजय' शब्दों द्वारा वर्धापित किया, श्रेष्ठ, उत्तम रत्न भेंट किये तथा इस प्रकार बोलेषट्खण्डवर्ती वैभव के-सम्पत्ति के स्वामिन् ! गुणभूषित ! जयशील ! लज्जा, लक्ष्मी, धृति सन्तोष, कोति के धारक ! राजोचित सहस्रों लक्षणों से सम्पन्न ! नरेन्द्र ! हमारे इस राज्य का चिरकाल पर्यन्त पाप पालन करें / / 1 / / अश्वपते ! गजपते ! नरपते ! नबनिधिपते ! भरत क्षेत्र के प्रथमाधिपते ! बत्तीस हजार देशों के राजाओं के अधिनायक! आप चिरकाल तक जीवित रहें-दीर्घायु हों / / 2 / / प्रथम नरेश्वर ! ऐश्वर्यशालिन् ! चौसठ हजार नारियों के हृदयेश्वर-प्राणवल्लभ ! रत्नाधिष्ठातृ-मागध तीर्थाधिपति आदि लाखों देवों के स्वामिन् ! चतुर्दश रत्नों के धारक ! यशस्विन् ! पापने aa में समुद्रपर्यन्त और उत्तर दिशा में क्षल्ल हिमवान गिरि पर्यन्त उत्तराध, दक्षिणार्ध–समग्र भरतक्षेत्र को जीत लिया है (जीत रहे हैं। हम देवानप्रिय के देश में प्रजा के रूप में निवास कर रहे हैं. हम आपके प्रजाजन हैं / / 3-4 // देवानुप्रिय की- आपकी ऋद्धि-सम्पत्ति, द्युति-कान्ति, यश-कीर्ति, बल-दैहिक शक्ति, वीर्य-आन्तरिक शक्ति, पुरुषकार--पौरुष तथा पराक्रम--ये सब आश्चर्यकारक हैं। आपको दिव्य देव-धुति---देवताओं के सदृश परमोत्कृष्ट कान्ति, परमोत्कृष्ट प्रभाव अपने पुण्योदय से प्राप्त है। हमने आपकी ऋद्धि (द्युति, यश, बल, वीर्य, पौरुष, पराक्रम, दिव्य देव-द्युति, दिव्य देव-प्रभाव, जो आपको लब्ध है, प्राप्त है, स्वायत्त है) का साक्षात् अनुभव किया है / देवानुप्रिय ! हम आपसे क्षमा ना करते हैं। देवानप्रिय ! आप हमें क्षमा करें। आप क्षमा करने योग्य हैं--क्षमाशील हैं। देवानप्रिय ! हम भविष्य में फिर कभी ऐसा नहीं करेंगे। यों कहकर वे हाथ जोडे राजा भरत के चरणों में गिर पड़े, शरणागत हो गये। फिर राजा भरत ने उन आपात किरातों द्वारा भेंट के रूप में उपस्थापित उत्तम, श्रेष्ठ रत्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org