Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 150] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र वह तीन स्थानों में कटिभाग में, उदर में तथा शरीर में कृश थी। तीन स्थानों में नेत्र के प्रान्त भाग में, अधरोष्ठ में तथा योनिभाग में ताम्र-लाल थी / वह त्रिवलियुक्त थी-देह के मध्य उदर स्थित तीन रेखाओं से युक्त थी। वह तीन स्थानों में-स्तन, जघन तथा योनिभाग में उन्नत थी। तीन स्थानों में नाभि में, सत्त्व में--अन्तःशक्ति में तथा स्वर में गंभीर थी। वह तीन स्थानों में रोमराजि में, स्तनों के चूचकों में तथा नेत्रों की कनीनिकायों में कृष्ण वर्ण युक्त थी। तीन में-दाँतों में, स्मित में-मुसकान में तथा नेत्रों में वह श्वेतता लिये थी। तीन स्थानों मेंकेशों की वेणी में, भजलता में तथा लोचनों में प्रलम्ब थी-लम्बाई लिये थी। तीन स्थानों में--- श्रोणिचक्र में, जघन-स्थली में तथा नितम्ब बिम्वों में विस्तीर्ण थी-चौड़ाई युक्त थी / / 1 / / वह समचौरस दैहिक संस्थानयुक्त थी। भरतक्षेत्र में समग्र महिलाओं में वह प्रधान--श्रेष्ठ थी। उसके स्तन, जघन, हाथ, पैर, नेत्र, केश, दाँत सभी सुन्दर थे, देखने वाले पुरुष के चित्त को ग्राह्लादित करने वाले थे, आकृष्ट करने वाले थे। वह मानो शृगार-रस का आगार-गृह थी। (उसकी वेशभूषा बड़ी लुभावनी थी। उसकी गति–चाल, हँसी, बोली, चेष्टा, कटाक्ष--ये सब बड़े संगत-सुन्दर थे / वह लालित्यपूर्ण संलाप- वार्तालाप करने में निपुण थी।) लोक-व्यवहार में वह कुशल-प्रवीण थी / वह रूप में देवांगनाओं के सौन्दर्य का अनुसरण करती थी / वह कल्याणकारीसुखप्रद यौवन में विद्यमान थी। विद्याधरराज नमि ने चक्रवर्ती भरत को भेंट करने हेतु रत्न, कटक तथा त्रुटित लिये / उत्कृष्ट त्वरित, तीन विद्याधर-गति द्वारा वे दोनों, जहाँ राजा भरत था, वहाँ आये / वहाँ आकर वे आकाश में अवस्थित हुए। (उन्होंने छोटी-छोटी घंटियों से युक्त, पंचरंगे वस्त्र भलीभाँति पहन रखे थे / उन्होंने हाथ जोडे, अंजलि बाँधे उन्हें मस्तक से लगाया। ऐसा कर) उन्होंने जय-विजय शब्दों द्वारा राजा भरत को वर्धापित किया और कहा---(देवानुप्रिय ! आपने उत्तर में क्षुद्र हिमवान पर्वत की सीमा तक भरतक्षेत्र को जीत लिया है। हम आपके देशवासी हैं आपके प्रजाजन हैं, हम आपके प्राज्ञानवर्ती सेवक हैं। (आप हमारे ये उपहार स्वीकार करें। यह कह कर) विनमि ने स्त्रीरत्न तथा नमि ने रत्न, पाभरण भेंट किये / राजा भरत ने (विद्याधरराज नमि तथा विनमि द्वारा समर्पित ये उपहार स्वीकार किये / स्वीकार कर नमि एवं विनमि का सत्कार किया, सम्मान किया। उन्हें सत्कृत, सम्मानित कर) वहाँ से विदा किया। फिर राजा भरत पौषधशाला से बाहर निकला / बाहर निकल कर स्नानघर में गया / स्नान आदि संपन्न कर भोजन-मंडप में गया, तेले का पारणा किया। विद्याधरराज नमि तथा विनमि को विजय कर लेने के उपलक्ष्य में अष्ट दिवसीय महोत्सव आयोजित किया। अष्ट दिवसीय महोत्सव के संपन्न हो जाने के पश्चात् दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला / उसने उत्तर-पूर्व दिशा में-ईशान-कोण में गंगा देवी के भवन की ओर प्रयाण किया। ___ यहाँ पर वह सब वक्तव्यता ग्राह्य है, जो सिन्धु देवी के प्रसंग में वर्णित है। विशेषता केवल यह है कि गंगा देवी ने राजा भरत को भेंट रूप में विविध रत्नों से युक्त एक हजार पाठ कलश, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org