Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 190) [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र रोहिताशा महानदी जहाँ गिरती है, वह रोहितांशाप्रपातकण्ड नामक एक विशाल कुण्ड है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई एक सौ बीस योजन है। उसकी परिधि कुछ कम 183 योजन है / उसकी गहराई दस योजन है / वह स्वच्छ है / तोरण-पर्यन्त उसका वर्णन पूर्ववत् है। उस रोहितांशाप्रपात कुण्ड के ठीक बीच में रोहितांशट्टीप नामक एक विशाल द्वीप है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई सोलह योजन है। उसकी परिधि कुछ अधिक पचास योजन है। वह जल से ऊपर दो कोश ऊँचा उठा हुआ है। वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ एवं सुकोमल है। भवन-पर्यन्त बाकी का वर्णन पूर्ववत् है। उस रोहितांशाप्रपात कुण्ड के उत्तरी तोरण से रोहितांशा महानदी आगे निकलती है, हैमवत क्षेत्र की ओर बढ़ती है / चौदह हजार नदियाँ वहाँ उसमें मिलती हैं। उनसे आपूर्ण होती हुई वह शब्दापाती वृत्तवैताढय पर्वत के प्राधा योजन दूर रहने पर पश्चिम की ओर मुड़ती है। वह हैमवत क्षेत्र को दो भागों में विभक्त करती हुई आगे बढ़ती है। तत्पश्चात् अट्ठाईस हजार नदियों के परिवार सहित उनसे आपूर्ण होती हुई वह नीचे की ओर जगती को दीर्ण करती हुई-उसे चीर कर लांघती हुई पश्चिम-दिग्वर्ती लवणसमुद्र में मिल जाती है। रोहितांशा महानदी जहाँ से निकलती है, वहाँ उसका विस्तार साढ़े बारह योजन है। उसकी गहराई एक कोश है / तत्पश्चात् वह मात्रा में क्रमशः बढ़ती जाती है / मुख-मूल में समुद्र में मिलने के स्थान पर उसका विस्तार एक सौ पच्चीस योजन होता है, गहराई अढाई योजन होती है। वह अपने दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं तथा दो वनखण्डों से संपरिवृत है। चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत के कूट 62. चुल्ल हिमवन्ते णं भन्ते ! वासहरपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता ? गोयमा! इक्कारस कूडा पण्णत्ता, तं जहा-१. सिद्धाययणकूडे, 2. चुल्ल हिमवन्तकडे, 3. भरहकडे, 4. इलादेवीकूडे, 5. गंगादेवीकूडे, 6. सिरिकूडे, 7. रोहिअंसकूडे, 8. सिन्धुदेवीकूडे, 6. सुरदेवीकूडे, 10. हेमवयकूडे, 11. वेसमणकूडे। कहि णं भन्ते ! चल्लहिमवन्ते वासहरपब्वए सिद्धाययणकडे णामं कडे पण्णते? गोयमा ! पुरथिमलवणसमुहस्स पच्चस्थिमेणं चुल्लहिमवन्तकूडस्स पुरथिमेणं एत्थ गं सिद्धाययणकडे णामं कूडे पण्णत्ते, पंच जोअणसयाई उद्ध उच्चत्तणं, मूले पंच जोअणसयाई विक्खंभेणं, मझे तिणि अ पण्णत्तरे जोअणसए विक्खंभेणं, उप्पि अद्धाइज्जे जोअणसए विक्खंभेणं / मूले एगं जोपणसहस्सं पंच य एगासीए जोअणसए किचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, मज्झे एग जोअणसहस्सं एगं च छलसीधे जोप्रणसयं किंचि विसेसूणं परिक्खेवेणं, उप्पि सत्त इक्काणउए जोअणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं। मूले विच्छिण्णे, मज्झे संखित्ते, उपि तणुए, गोपुच्छ-संठाण-संठिए, सवरयणामए, अच्छे / से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते / सिद्धाययणस्स फूडस्स गं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव' तस्स णं 1. देखें सूत्र संख्या 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org