Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 2.2] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसून क्षेत्र बतलाया गया है। वह (अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का स्पर्श करता है तथा) पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श करता है। उसका विस्तार 84210 योजन है / ____ उसकी बाहा पूर्व-पश्चिम 133616 लम्बी है। उत्तर में उसकी जीवा है, जो पूर्व-पश्चिम लम्बी है। वह दो ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श करती है। अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का स्पर्श करती है (तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श करती है) / वह 73601 "योजन लम्बी है। भगवन् ! हरिवर्षक्षेत्र का आकार, भाव, प्रत्यवतार कैसा है ? गौतम ! उसमें अत्यन्त समतल तथा रमणीय भूमिभाग है। वह मणियों तथा तृणों से सुशोभित है / मणियों एवं तृणों के वर्ण, गन्ध, स्पर्श और शब्द पूर्व वणित के अनुरूप हैं / हरिवर्षक्षेत्र में जहाँ तहाँ छोटी-छोटी वापिकाएँ, पुष्करिणियां आदि हैं। अवसर्पिणी काल के सुषमा नामक द्वितीय प्रारक का वहाँ प्रभाव है-वहाँ तदनुरूप स्थिति है / अवशेष वक्तव्यता पूर्ववत् है / भगवन् ! हरिवर्षक्षेत्र में विकटापाती नामक वृत्त वैताढय पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? / गौतम ! हरि या हरिसलिला नामक महानदी के पश्चिम में, हरिकान्ता महानदी के पूर्व में, हरिवर्ष क्षेत्र के बीचों-बीच विकटापाती नामक वृत्त वैताढय पर्वत बतलाया गया है। विकटापाती वृत्त वैताढय की चौड़ाई, ऊँचाई, गहराई, परिधि, आकार वैसा ही है, जैसा शब्दापाती का है / इतना अन्तर है-वहाँ अरुण नामक देव है / वहाँ विद्यमान कमल आदि के वर्ण, आभा, प्राकार आदि विकटापाती वृत्त वैताढ्य पर्वत के-से हैं। वहाँ परम ऋद्धिशाली अरुण नामक देव निवास करता है / दक्षिण में उसकी राजधानी है। भगवन् ! हरिवर्षक्षेत्र नाम किस कारण पड़ा ? गौतम ! हरिवर्षक्षेत्र में मनुष्य रक्तवर्णयुक्त हैं, रक्तप्रभायुक्त हैं कतिपय शंख-खण्ड के सदृश श्वेत हैं / श्वेतप्रभायुक्त है। वहाँ परम ऋद्धिशाली, पल्योपमस्थितिक-एक पल्योपम आयुष्य वाला हरिवर्ष नामक देव निवास करता है। गौतम ! इस कारण वह क्षेत्र हरिवर्ष कहलाता है / विवेचन-हरि शब्द के अनेक अर्थों में एक अर्थ सूर्य तथा एक अर्थ चन्द्र भी है / वृत्तिकार के अनुसार वहाँ कतिपय मनुष्य उदित होते अरुणाभायुक्त सूर्य के सदृश अरुणवर्णयुक्त एवं अरुणप्राभायुक्त हैं / कतिपय मनुष्य चन्द्र के समान श्वेत- उज्ज्वल वर्णयुक्त, श्वेतप्राभायुक्त हैं। निषध वर्षधर पर्वत 100. कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे 2 णिसहे णाम बासहरपव्वए पणते ? गोयमा! महाविदेहस्स वासस्स दक्षिणेणं, हरिवासस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चस्थिमलवणसमुहस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे णिसहे णामं वासहरपव्यए पण्णत्ते / पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणविस्थिण्णे। दुहा लवणसमुदं पुठे, पुरथिमिल्लाए (कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुह) पुठे, पच्चस्थिमिल्लाए (कोडीए पच्चस्थिमिल्लं लवणसमुदं) पुठे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org