Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 198]] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र __ तस्स गं रोहिअप्पवायकुण्डस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं रोहिआ महाणई पवढा समाणी हेमवयं वासं एज्जेमाणी 2 सद्दावई वट्टवेअद्धपव्वयं अद्धजोग्रणेणं असंपत्ता पुरस्थाभिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभयमाणो 2 अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पुरथिमेणं लवणसमुई समप्पेइ / रोहिआ णं जहा रोहिअंसा तहा पवाहे अ मुहे अ भाणिअब्वा इति जाव संपरिक्खित्ता। तस्स णं महापउमद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं हरिकता महाणई पढा समाणो सोलस पंचुत्तरे जोअणसए पंच य एगूणवोसइभाए जोपणस्स उत्तराभिमुहो पव्वएणं गंता महया घडमुहपवत्तिएणं, मुत्ताबलिहारसंठिएणं, साइरेगदुजोपणसइएणं पवाएणं पवडइ / हरिकता महाणई जो पवडइ, एत्थ णं महं एगा जिभिआ पण्णत्ता। दो जोयगाई आयामेणं, पणवीसं जोअणाई विक्खंभेणं, अद्ध जोअणं बाहल्लेणं, मगरमुहविउदृसंठाणसंठिआ, सम्वरयणामई, अच्छा / __ हरिकंता णं महाणई जहि पवडइ, एस्थ णं महं एगे हरिकंतप्पवायकुडे णाम कुडे पण्णत्ते / दोण्णि अ चत्ताले जोअणसए आयामविक्खंभेणं, सत्ताउणठे जोयणसए परिखेवेणं, अच्छे एवं कुण्डबत्तव्वया सव्वा नेयव्वा जाव तोरणा। तस्स णं हरिकतप्पवायकुण्डस्स बहुमझदेसभाए एस्थ णं महं एगे हरिकंतदोवे णामं दोवे पण्णते, बत्तीसं जोअणाई आयामविक्खंभेणं, एगुत्तरं जोअणसयं परिक्खेवेणं, दो कोसे असिए जलंतामो, सव्वरयणामए, अच्छे / से णं एगाए पउमवरवेइमाए एगेण य वणसंडेणं (सव्वनो समंता) संपरिविखत्ते वण्णमो भाणिअम्वोत्ति, पमाणं च सयणिज्जं च अट्रो प्रभाणिअन्यो। तस्स णं हरिकंतप्पवायकुण्डस्स उत्तरिल्लेगं तोरणेणं (हरिकता महाणई) पवढा समाणो हरिवस्सं वासं एज्जेमाणो 2 विग्रडावई वट्टवेअद्ध जोअणेणं असंपत्ता पच्चस्थाभिमुहो आवत्ता समाणी हरिवासं दुहा विभयमाणो 2 छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहि समग्गा अहे जगई दलइत्ता पच्चत्यिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ / हरिकता णं महाणई पवहे पणवीसं जोअणाई, विक्खम्भेणं, अद्धजोअणं उन्हेणं / तयणंतरं च णं मायाए 2 परिवद्धमाणी 2 मुहमूले अद्धाइज्जाई जोअणसयाई विक्खम्भेणं, पञ्च जोगणाई उम्वेहेणं। उभयो पासि दोहि पउमवरवेइहिं दोहि अ वणसंहिं संपरिक्खित्ता। __ [17] महाहिमवान् पर्वत के बीचोंबीच महापद्मद्रह नामक द्रह बतलाया गया है। वह दो हजार योजन लम्बा तथा एक हजार योजन चौड़ा है। वह दश योजन जमीन में गहरा है। वह स्वच्छ---उज्ज्वल है, रजतमय तटयुक्त है। लम्बाई ओर चौड़ाई को छोड़कर उसका सारा वर्णन पद्मद्रह के सदृश है। उसके मध्य में जो पद्म है, वह दो योजन का है। अन्य सारा वर्णन पद्मद्रह के पद्म के सदृश है। उसको प्राभा-प्रभा आदि सब वैसा ही है। वहाँ एक पल्योपमस्थितिका-एक पल्योपम आयुष्ययुक्ता ह्रो नामक देवी निवास करती है / गौतम ! इस कारण वह इस नाम से पुकारा जाता है / अथवा गोतम ! महापद्मद्रह नाम शाश्वत बतलाया गया है, जो न कभी नष्ट हुग्रा, न कभी नष्ट होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org