Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 192] [जमूतीपप्राप्तिसूत्र ___ गौतम ! उसके ग्यारह कूट बतलाये गये हैं--१. सिद्धायतनकूट, 2. चुल्लहिमवान्कूट, 3. भरतकूट, 4. इलादेवीकूट, 5. गंगादेवीकूट, 6. श्रीकूट, 7. रोहितांशाकूट, 8. सिन्धुदेवीकूट, 6. सुरादेवीकूट, 10 हैमवतकूट तथा 11. वैश्रवणकूट / भगवन् ! चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत पर सिद्धायतनकूट कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में, चुल्ल हिमवान् कूट के पूर्व में सिद्धायतन नामक कूट बतलाया गया है। वह पांच सौ योजन ऊँचा है। वह मूल में पांच सौ योजन, मध्य में 375 योजन तथा ऊपर 250 योजन विस्तीर्ण है। मूल में उसकी परिधि कुछ अधिक 1581 योजन, मध्य में कुछ कम 1186 योजन तथा ऊपर कुछ कम 791 योजन है। वह मूल में विस्तीर्ण-चौड़ा, मध्य में संक्षिप्त-संकड़ा एवं ऊपर तनुक-पतला है। उसका आकार गाय की ऊर्वीकृत पूछ के आकार जैसा है / वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है / वह एक पद्मवरवेदिका तथा एक वनखण्ड द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है। सिद्धायतनकूट के ऊपर एक बहुत समतल तथा रमणीय भूमिभाग है। उस भूमिभाग के ठीक बीच में एक विशाल सिद्धायतन है। वह पचास योजन लम्बा, पच्चीस योजन चौड़ा और छत्तीस योजन ऊँचा है / उससे सम्बद्ध जिनप्रतिमा पर्यन्त का वर्णन पूर्ववत् है। भगवन् ! चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत पर चुल्लहिमवान् नामक कूट कहाँ पर बतलाया गया है ? गौतम ! भरतकूट के पूर्व में, सिद्धायतनकूट के पश्चिम में चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत पर चुल्लहिमवान् नामक कूट बतलाया गया है। सिद्धायतनकूट की ऊँचाई, विस्तार तथा घेरा जितना है, उतना ही उस (चुल्लहिमवान्कूट) का है। उस कूट पर एक बहुत ही समतल एवं रमणीय भूमिभाग है। उसके ठीक बीच में एक बहुत बड़ा उत्तम प्रासाद है। वह 623 योजन ऊँचा है। वह 31 योजन और 1 कोस चौड़ा है। (समचतुरस्र होने से उतना ही लम्बा है / ) वह बहुत ऊँचा उठा हुआ है / अत्यन्त धवल प्रभापुज लिये रहने से वह हँसता हुआ-सा प्रतीत होता है। उस पर अनेक प्रकार को मणियाँ तथा रत्न जड़े हुए हैं। उनसे वह बड़ा विचित्र- अद्भुत प्रतीत होता है। अपने पर लगी, पवन से हिलती, फहराती विजय-वैजयन्तियों—विजयसूचक ध्वजाओं, पताकाओं, छत्रों तथा अतिछत्रों से वह बड़ा सुहावना लगता है। उसके शिखर बहत ऊँचे हैं, मानो वे आकाश को लांघ जाना चाहते हों। उसकी जालियों में जडे रत्न-समह ऐसे प्रतीत होते हैं. मानो प्रासाद ने अपने नेत्र उघाड रखे हों। उसकी स्नुपिकाएँ-छोटे-छोटे शिखर-छोटी-छोटी गुमटियाँ मणियों एवं रत्नों से निर्मित हैं / उस पर विकसित शतपत्र, पुण्डरीक, तिलक, रत्न तथा अर्धचन्द्र के चित्र अंकित हैं। अनेक मणिनिर्मित मालाओं से वह अलंकृत है। वह भीतर-बाहर वज्ररत्नमय, तपनीय-स्वर्णमय, चिकनी, रुचिर बालुका से आच्छादित है। उसका स्पर्श सुखप्रद है, रूप सश्रीक-शोभान्वित है। वह आनन्दप्रद, (दर्शनीय, अभिरूप तथा) प्रतिरूप है। उस उत्तम प्रासाद के भीतर बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग बतलाया गया है। सम्बद्ध सामग्रीयुक्त सिंहासन पर्यन्त उसका विस्तृत वर्णन पूर्ववत् है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org