Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 156] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र वाले कवच आदि के प्रहरणों-शस्त्रों के, सब प्रकार की युद्ध-नीति के-चक्रव्यूह, शकटव्यूह, गरुडव्यूह आदि की रचना से सम्बद्ध विधिक्रम के तथा साम, दाम, दण्ड एवं भेदमुलक राजनीति के उद्भव की विशेषता युक्त होती है। 6. शंख निधि-सब प्रकार की नृत्य-विधि, नाटक-विधि–अभिनय, अंग-संचालन, मुद्रा. प्रदर्शन आदि की, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चार पुरुषार्थों के प्रतिपादक काव्यों की अथवा संस्कृत, अपभ्रश एवं संकीर्ण-मिली-जुली भाषाओं में निबद्ध काव्यों की अथवा गद्य-अच्छन्दोबद्ध, पद्य---छन्दोबद्ध, गेय-गाये जा सकने योग्य, गीतिबद्ध, चौर्ण-निपात एवं अव्यय बहुल रचनायुक्त काव्यों की उत्पत्ति की विशेषता लिये होती है, सब प्रकार के वाद्यों को उत्पन्न करने की विशेषतायुक्त होती है। उनमें से प्रत्येक निधि का अवस्थान आठ-आठ चक्रों के ऊपर होता है--जहाँ-जहाँ ये ले जाई जाती हैं, वहाँ-वहाँ ये आठ चक्रों पर प्रतिष्ठित होकर जाती हैं / उनकी ऊँचाई आठ-पाठ योजन की, चौड़ाई नौ-नौ योजन की तथा लम्बाई बारह-बारह योजन की होती है / उनका प्राकार मंजूषापेटी जै IT होता है। गंगा जहाँ समद्र में मिलती है. वहाँ उनका निवास है। उनके कपाट बैडर्य मणिमय होते हैं। वे स्वर्ण-घटित होती हैं। विविध प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण-संभत होती हैं / उन पर चन्द्र, सूर्य तथा चक्र के आकार के चिह्न होते हैं। उनके द्वारों की रचना अनुसम-अपनी रचना के अनुरूप संगत, अविषम होती है / निधियों के नामों के सदृश नामयुक्त देवों की स्थिति एक पल्योपम होती है / उन देवों के आवास अक्रयणीय-न खरीदे जा सकने योग्य होते हैं—मूल्य देकर उन्हें कोई खरीद नहीं सकता, उन पर प्राधिपत्य प्राप्त नहीं कर सकता। प्रचुर धन-रत्न-संचय युक्त ये नौ निधियां भरतक्षेत्र के छहों खण्डों को विजय करने वाले चक्रवर्ती राजाओं के वंशगत होती हैं। राजा भरत तेले की तपस्या के परिपूर्ण हो जाने पर पौषधशाला से बाहर निकला, स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। स्नान आदि संपन्न कर उसने श्रेणि-प्रश्रेणि-जनों को बुलाया, नौ निधि-रत्नों कोनौ निधियों को साध लेने के उपलक्ष्य में अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित कराया। अष्टदिवसीय महोत्सव के संपन्न हो जाने पर राजा भरत ने अपने सेनापति सुषेण को बुलाया। बुलाकर उससे कहा-देवानुप्रिय ! जानो, गंगा महानदी के पूर्व में अवस्थित, भरतक्षेत्र के कोणस्थित दूसरे प्रदेश को, जो पश्चिम दिशा में गंगा से, पूर्व एवं दक्षिण दिशा में समुद्रों से और उत्तर दिशा में वैताढय पर्वत से मर्यादित हैं तथा वहाँ के अवान्तरक्षेत्रीय समविषम कोणस्थ प्रदेशों को अधिकृत करो। अधिकृत कर मुझे अवगत करायो। सेनापति सुषेण ने उन क्षेत्रों पर अधिकार किया उन्हें साधा / यहाँ का सारा वर्णन पूर्ववत् है। सेनापति सुषेण ने उन क्षेत्रों को अधिकृत कर राजा भरत को उससे अवगत कराया। राजा भरत ने उसे सत्कृत, सम्मानित कर विदा किया। वह अपने आवास पर पाया, सुखोपभोग में अभिरत हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org