Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ चतुर्थ वक्षस्कार] . [167 तस्स णं पउमद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं रोहिअंसा महाणई पवढा समाणी दोणि छावत्तरे जोअणसए छच्च एगूणवीसइभाइ जोअणस्स उत्तराभिमुही पव्वएणं गंता महया घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगजोअणसइएणं पवाएणं पवडइ। रोहिअंसाणामं महाणई जओ पवडइ, एत्थ गं महं एगा जिभित्रा पण्णत्ता। सा णं जिभिआ जोअणं पायामेणं, अद्धतेरसजोषणाई विक्खंभेणं, कोसं बाहल्लेणं, मगरमुहविउट्ठसंठाणसंठिया, सव्ववइरामई, अच्छा। रोहिअंसा महाणई जहिं पवडइ, एत्थ णं महं एगे रोहिअंसापवायकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते / सवीसं जोप्रणसयं पायामविक्खंभेणं, तिण्णि असीए जोअणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, दसजोषणाई उम्वेहेणं, अच्छे / कुडवण्णओ जाव तोरणा। तस्स णं रोहिअंसापवायकुडस्स बहुमज्भदेसभाए एत्थ णं महं एगे रोहिअंसा णामं दीवे पण्णत्ते / सोलस जोप्रणाई आयामविक्खंभेणं, साइरेगाइं पण्णासं जोयणाई परिक्खेवेणं, दो कोसे असिए जलंतानो, सव्वरयणामए, अच्छे, सण्हे / सेसं तं चेव जाव भवणं अट्ठो अभाणिअव्वोत्ति / तस्स णं रोहिअंसप्पवायकुडस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं रोहिअंसा महाणई पढा समाणी हेमवयं वासं एज्जमाणी 2 चउद्दसहि सलिलासहस्सेहि अापूरेमाणी 2 सद्दावइवट्टवेअड्डफव्वयं अद्धजोअणेणं असंपत्ता समाणी पच्चत्वाभिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभयमाणी 2 अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहि समग्गा अहे जगई दालइत्ता पच्चस्थिमेणं लवणसमुई समप्पेइ / रोहिअंसा णं पवहे अद्धतेरसजोषणाई विक्खंभेणं, कोसं उब्वेहेणं / तयणंतरं च णं मायाए 2 परिवद्धमाणो 2 मुहमूले पणवीसं जोअणसयं विक्खंभेणं, अद्धाइज्जाई जोअणाई उन्हेणं, उभओ पासि दोहि पउमवरवेइब्राहि दोहि अ वणसंडेहि संपरिविखत्ता। [1] उस पद्मद्रह के पूर्वी तोरण-द्वार से गंगा महानदी निकलती है। वह पर्वत पर पांच सौ योजन बहती है, गंगावर्तकूट के पास से वापस मुड़ती है, 523 3 योजन दक्षिण की ओर बहती है / घड़े के मुंह से निकलते हुए पानी की ज्यों जोर से शब्द करती हुई वेगपूर्वक, मोतियों के बने हार के सदृश आकार में वह प्रपात-कुण्ड में गिरती है। प्रपात-कुण्ड में गिरते समय उसका प्रवाह चुल्ल हिमवान् पर्वत के शिखर से प्रपात-कुण्ड तक कुछ अधिक सौ योजन होता है। जहाँ गंगा महानदी गिरती है, वहाँ एक जिहिका-जिह्वा की-सी आकृतियुक्त प्रणालिका वह प्रणालिका प्राधा योजन लम्बी तथा छह योजन एवं एक कोस चौड़ी है। वह प्राधा कोस मोटी है / उसका आकार मगरमच्छ के खुले मुंह जैसा है। वह सम्पूर्णतः हीरकमय है, स्वच्छ एवं सुकोमल है। __गंगा महानदी जिसमें गिरती है, उस कुण्ड का नाम गंगाप्रपातकुण्ड है। वह बहुत बड़ा है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई साठ योजन है। उसकी परिधि एक सौ नब्बे योजन से कुछ अधिक है। वह दस योजन गहरा है, स्वच्छ एवं सूकोमल है, रजतमय कलयुक्त है, समतल तटयुक्त है. हीरकमय पाषाणयुक्त है—वह पत्थरों के स्थान पर हीरों से बना है। उसके पैदे में हीरे हैं। उसकी बाल स्वर्ण तथा शुभ्र रजतमय है। उसके तट के निकटवर्ती उन्नत प्रदेश वैडूर्यमणि-नीलम तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org