Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 160] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र फुट्टमाणेहिं मुइंगमस्थरहि बत्तीसइबहिं णाडएहि उवलालिज्जमाणे 2 उवणच्चिज्जमाणे 2 उवगिज्जमाणे 2 महया जाव' भुजमाणे विहरइ / [83] राजा भरत ने इस प्रकार राज्य अजित किया-अधिकृत किया। शत्रुओं को जीता। उसके यहाँ समग्र रत्न उद्भूत हुए। चक्ररत्न उनमें मुख्य था। राजा भरत को नौ निधियाँ प्राप्त हुई। उसका कोश-खजाना समृद्ध था-धन-वैभवपूर्ण था। बत्तीस हजार राजाओं से वह अनुगत था। उसने साठ हजार वर्षों में समस्त भरतक्षेत्र पर अधिकार कर लिया–भरतक्षेत्र को साध लिया। तनदन्तर राजा भरत ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उन्हें कहा-'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही आभिषेक्य हस्तिरत्न को तैयार करो, हाथी, घोड़े, रथ तथा पदातियों से युक्त णी सेना सजाओ। कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा किया, राजा को अवगत कराया। राजा स्नान आदि नित्य-नैमित्तिक कृत्यों से निवृत्त होकर अंजनगिरि के शिखर के समान उन्नत गजराज पर आरूढ हुआ। राजा के हस्तिरत्न पर आरूढ हो जाने पर स्वस्तिक, श्रीवत्स (नन्द्यावर्त, वर्धमानक, भद्रासन, मत्स्य, कलश,)दर्पण-ये पाठ मंगल-प्रतीक राजा के आगे चले रवाना किये गये। उनके बाद जल से परिपूर्ण कलश, भृगार-झारियाँ, दिव्य छत्र, पताका, चंवर तथा दर्शनरचित-राजा के दृष्टिपथ में अवस्थित राजा को दिखाई देने वाली, आलोक-दर्शनीय देखने में सुन्दर प्रतीत होने वाली, हवा से फहराती, उच्छ्रित-ऊँची उठी हुई, मानो आकाश को छूती हुईसी विजय-वैजयन्ती--विजयध्वजा लिये राजपुरुष चले / तदनन्तर वैड्र्य---नीलम की प्रभा से देदीप्यमान उज्ज्वल दंडयुक्त, लटकती हुई कोरंट पुष्पों की मालाओं से सुशोभित, चन्द्रमंडल के सदृश आभामय, समुच्छित-ऊँचा फैलाया हुआ निर्मल प्रातपत्र-धूप से बचाने-वाला छत्र, अति उत्तम सिंहासन, श्रेष्ठ मणि-रत्नों से विभूषित-जिसमें मणियां तथा रत्न जड़े थे, जिस पर राजा की पादुकाओं की जोड़ी रखी थी, वह पादपीठ-राजा के पैर रखने का पीढ़ा, चौकी, जो (उक्त बस्तु-समवाय) किङ्करों आज्ञा कीजिए, क्या करें-हरदम यों आज्ञा पालन में तत्पर सेवकों, विभिन्न कार्यों में नियुक्त भृत्यों तथा पदातियों-पैदल चलने वाले लोगों से घिरे थे, क्रमश: आगे रवाना किये गये। __तत्पश्चात् चक्ररत्न, छत्ररत्न, चर्मरत्न, दण्डरत्न, असिरत्न, मणिरत्न, काकणीरत्न-ये सात एकेन्द्रिय रत्न यथाक्रम चले। उनके पीछे क्रमशः नैसर्प, पाण्डुक, (पिंगलक, सर्वरत्न, महापद्म, काल, महाकाल, माणवक) तथा शंख-ये नौ निधियाँ चलीं। उनके बाद सोलह हजार देव चले। उनके पीछे बत्तीस हजार राजा चले / उनके पीछे सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, वर्धकिरत्न तथा पुरोहितरत्न ने प्रस्थान किया। तत्पश्चात् स्त्रीरत्न-परम सुन्दरी सुभद्रा, बत्तीस हजार ऋतुकल्याणिकाएँ-जिनका स्पर्श ऋतु के प्रतिकूल रहता है-शीतकाल में उष्ण तथा ग्रीष्मकाल में शीतल रहता है, ऐसी राजकुलोत्पन्न कन्याएँ तथा बत्तीस हजार जनपदकल्याणिकाएँ जनपद के अग्रगण्य पुरुषों की कन्याएँ यथाक्रम चलीं। उनके पीछे बत्तीस-बत्तीस अभिनेतव्य प्रकारों से परिबद्ध-संयुक्त बत्तीस हजार नाटक-नाटकमंडलियाँ प्रस्थित हुईं। तदनन्तर तीन सौ साठ सूपकार--रसोइये, 1. देख सूत्र 45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org