Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 10.] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र शीतल, सुखप्रद जल, गन्धोदक-चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थों से मिश्रित जल, पुष्पोदक-पुष्पमिश्रित जल एवं शुद्ध जल द्वारा परिपूर्ण, कल्याणकारी, उत्तम स्नानविधि से स्नान किया / स्नान के अनन्तर राजा ने दृष्टिदोष, नजर आदि के निवारण हेतु रक्षाबन्धन आदि के सैकड़ों विधि-विधान संपादित किये / तत्पश्चात् रोएँदार, सुकोमल, काषायित - हरीतकी, विभीतक, आमलक आदि कसैली वनौषधियों से रंगे हुए अंथवा काषाय-लाल या गेरुए रंग के वस्त्र से शरीर को पोंछा। सरस-रसमय–आर्द्र, सुगन्धित गोशीर्ष चन्दन का देह पर लेप किया। अहत-अदूषित-चूहों आदि द्वारा नहीं कुतरे हुए, बहुमूल्य, दूष्यरत्न-उत्तम या प्रधान वस्त्र भलीभांति पहने / पवित्र माला धारण की / केसर आदि का विलेपन किया / मणियों से जड़े सोने के आभूषण पहने / हार-अठारह लडों के हार, अर्धहार-नौ लड़ों के हार तथा तीन लडों के हार और लम्बे, लटक टकते कटिसूत्र--- करधनी या कंदोरे से अपने को सुशोभित किया / गले के आभरण धारण किए। अंगुलियों में अंगूठियाँ पहनीं / इस प्रकार अपने सुन्दर अंगों को सुन्दर प्राभूषणों से विभूषित किया। नाना मणिमय कंकणों तथा त्रुटितों-तोड़ों-भुजबंधों द्वारा भुजाओं को स्तम्भित किया-कसा / यों राजा की शोभा और अधिक बढ़ गई / कुडलों से राजा का मुख उद्योतित था--चमक रहा था। मुकुट से मस्तक दीप्त--- देदीप्यमान था / हारों से ढका उसका वक्षःस्थल सुन्दर प्रतीत हो रहा था। राजा ने एक लम्बे, लटकते हुए वस्त्र को उत्तरीय (दुपट्टे) के रूप में धारण किया। मुद्रिकाओं-सोने की अंगठियों के कारण राजा की अंगुलियाँ पीली लग रही थीं। सुयोग्य शिल्पियों द्वारा नानाविध मणि, स्वर्ण, रत्न, इनके योग से सुरचित विमल-उज्ज्वल, महार्ह-बड़े लोगों द्वारा धारण करने योग्य, सुश्लिष्टसुन्दर जोड़ युक्त, विशिष्ट-उत्कृष्ट, प्रशस्त-प्रशंसनीय आकृतियुक्त सुन्दर वीरवलय-विजय, कंकण धारण किया। अधिक क्या कहें, इस प्रकार अलंकृत, विभूषित–वेशभूषा से विशिष्ट सज्जायुक्त राजा ऐसा लगता था, मानो कल्पवक्ष हो / अपने ऊपर लगाये गये कोरंट पुष्पों की मालाओं से यक्त छत्र, दोनों ओर डुलाये जाते चार चँवर, देखते ही लोगों द्वारा किये गये मंगलमय जय शब्द के साथ अनेक गणनायक-जन-समुदाय के प्रतिनिधि, दण्डनायक-आरक्षि-अधिकारी, दूत-संदेशवादक, संधिपालराज्य के सीमान्त-प्रदेशों के अधिकारी-इन सबसे घिरा हुआ, धवल महामेघ---श्वेत, विशाल बादल से निकले चन्द्र की ज्यों प्रियदर्शन देखने में प्रिय लगने वाला वह राजा स्नानघर से निकला।) स्नानघर से निकलकर घोड़े, हाथी, रथ, अन्यान्य उत्तम वाहन तथा योद्धाओं के विस्तार से यक्त सेना से सशोभित वह राजा जहाँ बाह्य उपस्थानशाला-बाहरी सभाभवन था, हस्तिरत्न था, वहाँ आया और अंजनगिरि के शिखर के समान विशाल गजपति पर आरूढ हुआ। भरताधिप-भरतक्षेत्र के अधिपति नरेन्द्र राजा भरत का वक्षस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित एवं प्रीतिकर था। उसका मुख कुडलों से उद्योतित-द्युतिमय था / मस्तक मुकुट से देदीप्यमान था / नरसिंह-मनुष्यों में सिंहसदृश शौर्यशाली, नरपति—मनुष्यों के स्वामी—परिपालक, नरेन्द्र मनुष्यों के इन्द्र–परम ऐश्वर्यशाली अभिनायक, नरवृषभ मनुष्यों में वृषभ के समान स्वीकृत कार्यभार के निर्वाहक, मरुद्राजवषभकल्प- व्यन्तर आदि देवों के राजाओं इन्द्रों के मध्य वषभ-- मुख्य सौधमेन्द्र के सदृश, राजोचित तेजस्वितारूप लक्ष्मी से अत्यन्त दीप्तिमय, वंदिजनों द्वारा सैकड़ों मंगलसूचक शब्दों से संस्तुत, जयनाद से सुशोभित, गजारूढ राजा' भरत सहस्रों यक्षों से संपरिवृत 1. चक्रवर्ती का शरीर दो हजार व्यन्तर देवों से अधिष्ठित होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org