Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय वक्षस्कार] [123 राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर सेनापति सुषेण अपने चित्त में हर्षित, परितुष्ट तथा प्रानन्दित हुआ / उसने अपने दोनों हाथ जोड़े। उन्हें मस्तक से लगाया, मस्तक पर से घुमाया और अंजलि बाँधे ('स्वामी ! जैसी आज्ञा' ऐसा कहकर) विनयपूर्वक राजा का वचन स्वीकार किया। वैसा कर राजा भरत के पास से रवाना हुआ। रवाना होकर जहाँ अपना प्रावासस्थान था, जहाँ पौषधशाला थी, वहाँ आया। वहाँ आकर डाभ का बिछौना बिछाया। (डाभ का बिछौना बिछाकर उस पर संस्थित हुा / ) कृतमाल देव को उद्दिष्ट कर तेले की तपस्या अंगीकार की। पौषधशाला में पौषध लिया / ब्रह्मचर्य स्वीकार किया। तेले के पूर्ण हो जाने पर वह पौषधशाला से बाहर निकला / बाहर निकलकर, जहाँ स्नानघर था, वहाँ पाया। पाकर स्नान किया, नित्यनैमित्तिक कृत्य किये। देहसज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन प्रांजा, ललाट पर तिलक लगाया, दुःस्वप्नादि दोष-निवारण हेतु चन्दन, कुकुम, दही, अक्षत आदि से मंगल-विधान किया / उत्तम, प्रवेश्य-राजसभा में, उच्च वर्ग में प्रवेशोचित श्रेष्ठ, मांगलिक वस्त्र भली-भांति पहने। थोड़े-संख्या में कम पर बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया। धूप, पुष्प, सुगन्धित पदार्थ एवं मालाएँ हाथ में लीं / स्नानघर से बाहर निकला। बाहर निकल कर जहाँ तमित्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट थे, उधर चला / माण्डलिक अधिपति, ऐश्वर्यशाली, प्रभावशाली पुरुष, राजसम्मानित विशिष्ट जन, जागीरदार तथा सार्थवाह आदि सेनापति सुषेण के पीछे पीछे चले, जिनमें से कतिपय अपने हाथों में कमल लिये थे। बहुत सी दासियां पीछे पीछे चलती थीं, जिनमें से अनेक कुबड़ी थीं, अनेक किरात देश की थीं। (अनेक बौनी थीं, अनेक ऐसी थीं, जिनकी कमर झुकी थीं। अनेक बर्बर देश की, बकुश देश की, यूनान देश की, पलव देश की, इसिन देश को, चारुकिनिक देश की, लासक देश की, लकुश देश की, द्रविड देश की, सिंहल देश की, अरब देश की, पुलिन्द देश की, पक्कण देश की, बहल देश की, मुरुड देश की, शबर देश की तथा पारस देश की थी।) वे चिन्तित तथा अभिलषित भाव को संकेत या चेष्टा मात्र से समझ लेने में विज्ञ थीं, प्रत्येक कार्य में निपुण थीं, कुशल थीं तथा स्वभावतः विनयशील थीं। उन दासियों में से किन्हीं के हाथों में मंगल-कलश थे, (किन्हीं के हाथों में फूलों के गुलदस्तों से भरो टोकरियां, भगार-झारियां, दर्पण, थाल, रकाबी जैसे छोटे पात्र, सुप्रतिष्ठक, वातकरककरवे, रत्नकरण्डकः रत्न-मंजूषा, फलों की डलिया, माला, वर्णक, चूर्ण, गन्ध, वस्त्र, आभूषण, मोरपंखों से बनी, फूलों के गुलदस्तों से भरी डलिया, मयुरपिच्छ, सिंहासन, छत्र, चँवर तथा तिलसमुद्गक-तिल के भाजन-विशेष-डिब्बे आदि भिन्न भिन्न वस्तुएँ थीं।)। __सब प्रकार की समृद्धि तथा द्युति से युक्त सेनापति सुषेण वाद्य-ध्वनि के साथ जहाँ तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट थे, वहाँ आया। पाकर उन्हें देखते ही प्रणाम किया। मयूरपिच्छ से वनी प्रमार्जनिका उठाई। उससे दक्षिणी द्वार के कपाटों को प्रमाजित किया--साफ किया / उन पर दिव्य जल की धारा छोड़ी---दिव्य जल से उन्हें धोया / धोकर आर्द्र गोशीर्ष चन्दन से परिलिप्त पांच अंगुलियों सहित हथेली के थापे लगाये / थापे लगाकर अभिनव, उत्तम सुगन्धित पदार्थों से तथा मालाओं से उनकी अर्चना की। उन पर पुष्प (मालाएँ, सुगन्धित वस्तुएँ, वर्णक, चूर्ण) वस्त्र चढ़ाये / ऐसा कर इन सबके ऊपर से नीचे तक फैला, विस्तीर्ण, गोल (अपने में लटकाई गई मोतियों की मालाओं से युक्त) चांदनी-चंदवा ताना / चॅदवा तानकर स्वच्छ बारीक चांदी के चावलों से, जिनमें स्वच्छता के कारण समीपवर्ती वस्तुओं के प्रतिबिम्ब पड़ते थे, तमिस्रा गुफा के कपाटों के आगे स्वस्तिक, श्रीवत्स, (नन्द्यावर्त, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org