Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 138] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र के आतप, वायु–आँधी, वर्षा आदि दोषों--विघ्नों का विनाशक था। पूर्व जन्म में प्राचरित तप, पुण्यकर्म के फलस्वरूप वह प्राप्त था। वह छत्ररत्न अहत--अपने पापको योद्धा मानने वाले किसी भी पुरुष द्वारा संग्राम में खण्डित न हो सकने वाला था, ऐश्वर्य प्रादि अनेक गुणों का प्रदायक था। हेमन्त आदि ऋतुओं में तद्विपरीत सुखप्रद छाया देता था / अर्थात् शीत ऋतु में उष्ण छाया देता था तथा ग्रीष्म ऋतु में शीतल छाया देता था / वह छत्रों में उत्कृष्ट एवं प्रधान था / अल्पपुण्य-पुण्यहीन या थोड़े पुण्यवाले पुरुषों के लिए वह दुर्लभ था। वह छत्ररत्न छह खण्डों के अधिपति चक्रवर्ती राजाओं के पूर्वाचरित तप के फल का एक भाग था। विमानवास में भी-देवयोनि में भी वह अत्यन्त दुर्लभ था। उस पर फूलों की मालाएँ लटकती थीं वह चारों ओर पुष्पमालाओं से आवेष्टित था। वह शरद् ऋतु के धवल मेघ तथा चन्द्रमा के प्रकाश के समान भास्वर --उज्ज्वल था। वह दिव्य था—एक सहस्र देवों से अधिष्ठित था। राजा भरत का वह छत्ररत्न ऐसा प्रतीत होता था, मानो भूतल पर परिपूर्ण चन्द्रमण्डल हो। राजा भरत द्वारा छुए जाने पर वह छत्ररत्न कुछ अधिक बाहर योजन तिरछा विस्तीर्ण हो गया-फैल गया। 76. तए णं से भरहे राया छत्तरयणं खंधावारस्सुरि ठवेइ 2 ता मणिरयणं परामुसइ वेढो (तोतं चउरंगुलप्पमाणमित्तं च अणग्धं तसिन छलंसं प्रणोवमजुइं दिव्वं मणिरयपतिसमं बेरुलिन सव्वभूकंतं जेण य मुद्धागएणं दुक्खं ण किंचि जाव हवइ आरोग्गे अ सव्वकालं तेरिच्छिप्रदेवमाणुसकया य उवसग्गा सम्वे ण करेंति तस्स दुक्खं, संगामेऽवि असत्थवज्झो होइ णरो मणिवरं धरतो ठिप्रजोन्वणकेसअवडिढप्रणहो हवइ अ सवभय विप्पमुक्को) छत्तरयणस्स वस्थिभागंसि उवेइ, तस्स य अणतिवरं चारुरूवं सिलणिहिअत्थमंतमेतसालि-जव-गोहूम-मुग्ग-मास-तिल-कुलत्थ-सटिग-निप्फावचणग-कोद्दव-कोत्थु भरि-कंगुबरग-रालग-अणेग-धण्णावरण-हारिप्रग-अल्लग-मूलग-हलिद्द-लाउअ-तउसतुंब-कालिंग-कविट्ठ-अंब-अंबिलिअ-सव्वणिप्फायए सुकुसले गाहावइरयणेत्ति सक्वजणवीसुश्रगुणे / तए णं से गाहावइरयणे भरहस्स रण्णो तदिवसप्पइण्णणिप्फाइअपूइाणं सत्वधण्णाणं अणेगाई कुभसहस्साइं उबट्ठवेति, तए णं से भरहे राया चम्मरयणसमारूढे छत्तरयणसमोच्छन्ने मणिरयणकउज्जोए समुग्गयभूएणं सुहंसुहेणं सत्तरत्तं परिवसइ--- णवि से खुहा ण विलियं णेव भयं व विज्जए दुक्खं / भरहाहिवस्स रणो खंधावारस्सवि तहेव // 1 // [76] राजा भरत ने छत्ररत्न को अपनी सेना पर तान दिया। यों छत्ररत्न को तानकर मणिरत्न का स्पर्श किया। (वह मणिरत्न विशिष्ट आकारयुक्त, सुन्दर था, चार अंगुल प्रमाण था, अमूल्य था-कोई उसका मूल्य प्रांक नहीं सकता था / वह तिखूटा था, ऊपर-नीचे षट्कोण युक्त था, अनुपम द्युतियुक्त था, दिव्य था, मणिरत्नों में सर्वोत्कृष्ट था, वैदूर्य मणि की जाति का था, सब लोगों का मन हरने वाला था--सबको प्रिय था, जिसे मस्तक पर धारण करने से किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं रह जाता था—जो सर्वकष्ट-निवारक था, सर्वकाल आरोग्यप्रद था। उसके प्रभाव से तिर्यञ्च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org