Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 124] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र वर्धमानक, भद्रासन, मत्स्य, कलश तथा दर्पण-ये पाठ) मांगलिक प्रतीक अंकित किये / कचग्रह-- केशों को पकड़ने की ज्यों पांचों अंगुलियों से ग्रहीत पंचरंगे फूल उसने अपने करतल से उन पर छोड़े। वैदूर्य रत्नों से बना धूपपात्र उसने हाथ में लिया। धूपपात्र को पकड़ने का हत्था चन्द्रमा की ज्यों उज्ज्वल था, वज्ररत्न एवं वैदूर्यरत्न से बना था। धूप-पात्र पर स्वर्ण, मणि तथा रत्नों द्वारा चित्रांकन किया हुआ था। काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान एवं धूप की गमगमाती महक उससे उठ रही थी। सुगन्धित धुएँ की प्रचुरता से वहाँ गोल गोल धूममय छल्ले से बन रहे थे। उसने उस धूपपात्र में धूप दिया-धूप खेया। फिर उसने अपने बाएँ घुटने को जमीन से ऊँचा रखा (दाहिने घुटने को जमीन पर टिकाया) दोनों हाथ जोड़े, अंजलि रूप से उन्हें मस्तक से लगाया / वैसा कर उसने कपाटों को प्रणाम किया। प्रणाम कर दण्डरत्न को उठाया / वह दण्ड रत्नमय तिरछे अवयव-युक्त था, वज्रसार से बना था, समग्र शत्रु-सेना का विनाशक था, राजा के सैन्य-सन्निवेश में गड्ढों, कन्दराओं, ऊबड़-खाबड़ स्थलों, पहाड़ियों, चलते हुए मनुष्यों के लिए कष्टकर पथरीले टीलों को समतल बना देने वाला था। वह राजा के लिए शांतिकर, शुभकर, हितकर तथा उसके इच्छित मनोरथों का पूरक था, दिव्य था, अप्रतिहत किसी भी प्रतिघात से अबाधित था। सेनापति सुषेण ने उस दण्डरत्न को उठाया। वेग-पापादन हेतु वह सात आठ कदम पीछे हटा, तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के किवाडों पर तीन बार या, जिससे भारी शब्द हुआ। इस प्रकार सेनापति सुषेण द्वारा दण्डरत्न से तीन बार आहत-ताड़ित कपाट क्रोञ्च पक्षी की ज्यों जोर से आवाज कर सरसराहट के साथ अपने स्थान से विचलित हुए-सरके / यों सेनापति सुषेण ने तमिस्रागुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट खोले / वैसा कर वह जहाँ राजा भरत था, वहाँ पाया (आकर राजा की तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की)। हाथ जोड़े, (हाथों से अंजलि बांधे मस्तक को छा)। राजा को 'जय, विजय' शब्दों द्वारा वर्धापित किया / वर्धापित कर राजा से कहा-देवानुप्रिय ! तमिस्रागुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट खोल दिये हैं / मैं तथा मेरे सदर यह प्रिय संवाद प्रापको निवेदित करते हैं / आपके लिए यह प्रियकर हो / राजा भरत सेनापति सुषेण से यह संवाद सुनकर अपने मन में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हुआ / राजा ने सेनापति सुषेण का सत्कार किया, सम्मान किया। सेनापति को सत्कृत, सम्मानित कर उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उनसे कहा-आभिषेक्य हस्तिरल को शीघ्र तैयार करो। उन्होंने वैसा किया / तब घोड़े, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं-पदातियों से परिगठित चातुरंगिणी सेना से परिवृत, अनेकानेक सुभटों के विस्तार से युक्त राजा उच्च स्वर से समुद्र के गर्जन के सदृश सिंहनाद करता हुआ अंजनगिरि के शिखर के समान गजराज पर आरूढ हुआ। काकरणी रत्न द्वारा मण्डल-पालेखन 70. तए णं से भरहे राया मणिरयणं परामुसइ तोतं चउरंगुलप्पमाणमित्तं च अणग्धं तंसिन छलंसं अणोवमजुई दिव्वं मणिरयणपतिसमं वेरुलि सयभूअकंतं जेण य मुद्धागएणं दुक्खं ण किंचि जाव हवइ प्रारोग्गे अ सव्वकालं तेरिच्छिअदेवमाणुसक्या य उवसग्गा सन्वे ण करेंति तस्स दुक्खं, संगामेऽवि असत्थवज्झो होइ णरो मणिवरं धरतो, ठिअजोवणकेसअवडिअणहो हवइ अ सव्वभयविष्पमुक्को, तं मणिरयणं गहाय से णरवई हत्थिरयणस्स दाहिणिल्लाए कुभीए णिविखवइ / तए णं से भरहाहिवे परिंदे हारोत्थए सुकयरइप्रवच्छे (कुडल उज्जोइआणणे मउडदित्तसिरए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org