Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ aa की दृष्टि से नेत्रों में 118) / जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र मस्तक पर से घुमाया तथा अंजलि बाँधे 'स्वामी! जो अाज्ञा' यों कहकर राजा का आदेश विनयपूर्वक स्वीकार किया। ऐसा कर वह वहाँ से चला। चलकर जहाँ अपना प्रावास-स्थान था, वहाँ पाया / वहाँ आकर उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुलाकर उनको कहा--देवानुप्रियो ! आभिषेक्य हस्तिरत्न को-गजराज को तैयार करो, घोड़े, हाथी, रथ तथा उत्तम योद्धाओं पदातियों से परिगठित चातुरंगिणी सेना को सजानो। ऐसा आदेश देकर वह जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया / स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। स्नान किया. नित्य-नैमित्तिक कृत्य किये, कौतक-मंगल-प्रायश्चित्त किया--देहसज्जा की दष्टि से ने अंजन प्रांजा, ललाट पर तिलक लगाया, दु:स्वप्न आदि दोष-निवारण हेतु चन्दन, कुकुम, दही, अक्षत प्रादि से मंगल-विधान किया। उसने अपने शरीर पर लोहे के मोटे मोटे तारों से निर्मित कवच कसा, धनुष पर दृढता के साथ प्रत्यञ्चा आरोपित की / गले में हार पहना / मस्तक पर अत्यधिक वीरतासूचक निर्मल, उत्तम वस्त्र गांठ लगाकर बांधा / बाण आदि क्षेप्य-दूर फेंके जाने वाले तथा खड्ग आदि अक्षेप्य-पास ही से चलाये जाने वाले शस्त्र धारण किये / अनेक गणनायक, दण्डनायक आदि से वह घिरा था / उस पर कोरंट पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र तना था। लोग मंगलमय जय-जय शब्द द्वारा उसे वर्धापित कर रहे थे। वह स्नानघर से बाहर निकला / बाहर निकलकर जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, ग्राभिषेक्य हस्तिरत्न था, वहाँ आया / आकर उस गजराज पर आरूढ हुआ। चर्मरत्न का प्रयोग 67. तए णं से सुसेणे सेणावई हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं हयगयरहपवरजोहकलिआए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिवुडे महयाभडचडगरपहगरवंदपरिक्खित्ते महयाउक्किट्ठसीहणायबोलकलकलसद्देणं समुद्दरवभूयंपिव करेमाणे 2 सव्विड्डीए सब्वज्जुईए सव्वबलेणं (सव्वसमुदयेणं सव्वायरेणं सवविभूसाए. सम्वविभूईए सव्ववत्थपुप्फगंधमल्लालंकारविभूसाए सव्वतुडिअसहसणिणाएणं सव्विड्डीए सव्ववर-तुडिअ-जमगसमगपवाइएणं संखपणवपडहभेरिझल्लरिखरमुहिमुरयमुइंगदुदुहि-) णिग्घोसणाइएणं जेणेव सिंधू महाणई तेणेव उवागच्छइ 2 ता चम्मरयणं परामुसइ। तए णं तं सिरिवच्छसरिसरूवं मुत्ततारद्धचंदचित्तं अयलमकंपं अभेज्जकवयं जंतं सलिलासु सागरेसु अ उत्तरणं दिव्वं चम्मरयणं सणसत्तरसाई सव्वधण्णाइं जत्थ रोहंति एगदिवसेण वाविप्राइं, वासं णाऊण चक्कट्टिणा परामुट्ठ दिवे चम्मरयणे दुवालस जोअणाई तिरि पवित्थरइ तत्थ साहिआई, तए णं से दिव्वे चम्मरयणे सुसेणसेणावइणा परामुळे समाणे खिप्पामेव गावाभूए जाए होत्था / तए णं से सुसेणे सेणावई सखंधावारबलवाहणे गावाभूयं चम्मरयणं दुरूहइ 2 ता सिंधुमहाणई विमलजलतुगवीचि गावाभूएणं चम्मरयणेणं सबलवाहणे ससेणे समुत्तिण्णे। [67/ कोरंट पुष्प की मालाओं से युक्त छत्र उस पर लगा था, घोडे, हाथी, उत्तम योद्धाओं—पदा. तियों से युक्त सेना से वह संपरिवृत था। विपुल योद्धाओं के समूह से वह समवेत था। उस द्वारा किये गये गम्भीर, उत्कृष्ट सिंहनाद की कलकल ध्वनि से ऐसा प्रतीत होता था, मानो समुद्र गर्जन कर रहा हो / सब प्रकार की ऋद्धि, सब प्रकार की द्युति—आभा, सब प्रकार के बल सैन्य, शक्ति से युक्त (सर्वसमुदय - सभी परिजन सहित, समादरपूर्ण प्रयत्नरत, सर्वविभूषा--सब प्रकार की वेशभूषा, वस्त्र, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org