Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ तृतीय वक्षस्कार] [117 पच्चथिमिल्लं णिक्खुडं ससिंधुसागरगिरिमेरागं समविसमणिक्खुडाणि अ ओअवेहि ओअवेत्ता अग्गाई वराई रयणाई पडिच्छाहि अग्गाई० पडिच्छित्ता ममेप्रमाणत्तिपच्चप्पिणाहि / ___तते णं से सेणावई बलस्स आ भरहे वासंमि विस्सुअजसे महाबलपरक्कमे महप्पा प्रोग्रेसी तेअलक्खणजुत्ते मिलक्खुभासाविसारए चित्तचारुभासी भरहे वासंमि णिक्खुडाणं निष्णाण य दुग्गमाण य दुप्पवेसाण य विआणए अत्थसत्थकुसले रयणं सेणावई सुसेणे भरहेणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठचित्तमाणदिए जाव' करयलपरिग्गहि दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं सामी ! तहत्ति प्राणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ 2 ता भरहस्स रण्णो अंतिप्राओ पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव सए प्रावासे तेणेव उवागच्छइ 2 ता कोडुबियपुरिसे सहावेइ 2 ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्येह हयगयरहपवर-(जोहकलिअं) चाउरंगिणि सेण्णं सण्णाहेहत्ति कटु जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ 2 ता मज्जणघरं अणुपविसइ 2 ता ण्हाए कयबलिकम्मे कयकोउअमंगलपायच्छित्ते सन्नद्धबद्धवम्मिअकवए उप्पी लिअसरासणपट्टिए पिणद्धगेविज्जबद्धाविद्धविमलवरचिधपट्टे गहिसाउहप्पहरणे अणेगगणनायगदंडनायग जाव' सद्धि. संपरिवुडे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं मंगलजयसद्दकयालोए मज्जणघरानो पडिणिवखमइ 2 ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव आभिसेक्के हस्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता प्राभिसेक्कं हत्थिरयणं दुरूढे / [66] कृतमाल देव के विजयोपलक्ष्य में समायोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर राजा भरत ने अपने सुषेण नामक सेनापति को बुलाया / बुलाकर उससे कहा---देवानुप्रिय ! सिंधु महानदी के पश्चिम में विद्यमान, पूर्व में तथा दक्षिण में सिन्धु महानदी द्वारा, पश्चिम में पश्चिम समद्र द्वारा तथा उत्तर में वैतादय पर्वत द्वारा विभक्त-मर्यादित भरतक्षेत्र के कोणवर्ती खण्डरूप निष्कुट प्रदेश को, उसके सम, विषम अवान्तर-क्षेत्रों को अधिकृत करो---मेरे अधीन बनायो / उन्हें अधिकृत कर उनसे अभिनव, उत्तम रत्न अपनी-अपनी जाति के उत्कृष्ट पदार्थ गृहीत करो-प्राप्त करो / मेरे इस आदेश की पूति हो जाने पर मुझे इसकी सूचना दो / भरत द्वारा यों अाज्ञा दिये जाने पर सेनापति सुषेण चित्त में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हा / सुषेण भरतक्षेत्र में विश्रुतयशा-बड़ा यशस्वी था। विशाल सेना का वह अधिनायक था, अत्यन्त बलशाली तथा पराक्रमी था / स्वभाव से उदात्त---बड़ा गम्भीर था। ओजस्वी-आन्तरिक प्रोजयुक्त, तेजस्वी शारीरिक तेजयुक्त था। वह पारसी, अरबी आदि भाषाओं में निष्णात था। उन्हें बोलने में समझने में. उन द्वारा औरों को समझाने में समर्थ था। वह विविध प्रकार से चारुसन्दर शिष्ट भाषा-भाषी था। निम्न-नीचे, गहरे, दुर्गम-जहाँ जाना बड़ा कठिन हो, दुष्प्रवेश्यजिनमें प्रवेश करना दुःशक्य हो, ऐसे स्थानों का विशेषज्ञ था—विशेष जानकार था / अर्थशास्त्रनीतिशास्त्र आदि में कुशल था / सेनापति सुषेण ने अपने दोनों हाथ जोड़े / उन्हें मस्तक से लगाया-- 1. देखें सूत्र संख्या 44 2. देखे सूत्र संख्या 44 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org