Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 106] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र उस चक्ररत्न का अरक-निवेश-स्थान-पारों का जोड़ वज्रमय था हीरों से जड़ा था। मारे लाल रत्नों से युक्त थे। उसकी नेमि पीत स्वर्णमय थी / उसका भीतरी परिधिभाग अनेक मणियों से परिगत था / वह चक्रमणियों तथा मोतियों के समूह से विभूषित था। वह मृदंग आदि बारह प्रकार के वाद्यों के घोष से युक्त था / उसमें छोटी-छोटी घण्टियां लगी थीं / वह दिव्य प्रभावयुक्त था, मध्याह्न काल के सूर्य के सदृश तेजयुक्त था, गोलाकार था, अनेक प्रकार की मणियों एवं रत्नों की घण्टियों के समूह से परिव्याप्त था / सब ऋतुओं में खिलने वाले सुगन्धित पुष्पों की मालाओं से युक्त था, अन्तरिक्षप्रतिपन्न था--आकाश में अवस्थित था, गतिमान् था, एक हजार यक्षों से संपरिवृत था----घिरा था। दिव्य वाद्यों के शब्द से गगनतल को मानो भर रहा था। उसका सुदर्शन नाम था। राजा भरत के उस प्रथम प्रधान चक्ररत्न ने यों शस्त्रागार से निकलकर दक्षिण पश्चिम दिशा में-नैऋत्य कोण में वरदाम तीर्थ की अोर प्रयाण किया। वरदामतीर्थ-विजय 56. तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं दाहिणपच्चत्थिमं दिसि वरदामतित्थाभिमुहं पयातं चावि पासइ 2 त्ता हट्टतुट्ठ० कोडुबिअपुरिसे सद्दावेइ 2 त्ता एवं वयासी-- 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! ह्य-गय-रह-पवर चाउरंगिण सेण्णं सण्णाहेह, प्राभिसेक्कं हस्थिरयणं पडिकप्पेह, त्ति कटु मज्जणधरं अणुपविसइ 2 ता तेणेव कमेणं जाव' धवलमहामेहणिग्गए (इव ससिव्व पियदसणे, गरवई मज्जणघरानो पडिणिक्खमइ 2 ता हयगयरहपवरवाहणभडचडगरपहकरसंकुलाए सेणाए पहिअकित्ती जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव प्राभिसेक्के हस्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ 2 ता अंजणगिरिकडगसण्णिभं गयवई गरवई दुरुढे / तए णं से भरहाहिवे णरिदे हारोत्थए सुकयरइयवच्छे कुडलउज्जोइआणणे मउडदित्तसिरए परसीहे गरबई रिदे परवसहे मरुग्ररायवसभकप्पे अभहिसरायतेप्रलच्छोए दिपमाणे पसत्थमंगलसहि संथुधमाणे जयसद्दकयालोए हस्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं) सेअवरचामराहि उधुव्वमाणीहिं 2 माइअवरफलयपवरपरिगरखेडयवरवम्मकवयमाढीसहस्सकलिए उक्कडवरमउडतिरीडपडागझयवेजयंतिचामरचलंतछत्तंधयारकलिए प्रसिखेवणिखग्गचावणारायफणयकप्पणिसूललउडभिडिमालधणुहतोणसरपहरणेहि प्र कालणीलरुहिरपीअसुकिल्लप्रणेचिधसयसण्णिविट्ठे अप्फोडिअसीहणायछेलिग्रहयहेसिअहत्थिगुलुगुलाइअअणेगरहसयसहस्सघणघणेतणीहम्ममाणसहसहिएण जमगसमगभंभाहोरंभकिणितखरमुहिमुगुदसंखिअपरिलिवच्चगपरिवाइणिवंसवेणुविपंचिमहतिकच्छभिरिगिसिगिअकलतालंकसतालकरधाणुत्थिदेण महया सहसण्णिणादेण सयलमवि जीवलोगं पूरयंते बलवाहणसमुदएणं एवं जक्खसहस्सपरिवुडे वेसमणे चेव घणवई अमरपतिसणिभाइ इद्धीए पहिअकित्ती गामागरणगरखेडकब्बड तहेव सेसं (मडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसहस्समंडिअॅ थिमिअमेइणीअं वसुहं अभिजिणमाणे 2 अग्गाई वराई रयणाई पडिच्छमाणे 2 तं दिव्वं चक्करयणं अणुगच्छमाणे 2 जोग्रंणतरिआहिं वसहोहिं वसमाणे 2 जेणेव वरदामतित्थे तेणेव उवागच्छइ 2 ता वरदामतित्थस्स प्रदूरसामन्ते दुवालसजोयणायाम णवजोग्रण 1. देखें सूत्र संख्या 44 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org