Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय बक्षस्कार] .. तए णं से भरहे राया प्राभिसेक्कामो हत्थिरयणाप्रो पच्चोरुहइ 2 ता जेणेव पोसहसाला, तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता पोसहसालं अणुपविसइ 2 त्ता पोसहसालं पमज्जइ २त्ता दम्भसंथारगं संथरइ 2 ता दब्भसंथारगं दुरूहइ 2 ता मागहतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिव्हइ 2 त्ता पोसहसालाए पोसहिए, बंभयारी, उम्मुक्कमणिसुवण्णे, ववगयमालावण्णगविलेवणे, णिक्सित्तसत्थमुसले, दम्भसंथारोवगए, एगे, अबीए अट्टमभत्तं पडिजागरमाणे 2 विहरह। तए णं से भरहे राया अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला, तेणेव उवागच्छइ 2 ता कोडुबिअपुरिसे सद्दावेइ 2 ता एवं वयासो--- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! हयगयरहपवरजोहकलिअं चाउरंगिण सेणं सण्णाहेह, चाउग्धंटे आसरहं पडिकप्पेहत्ति कटु मज्जणधरं अणुपविसइ 2 ता समुत्त तहेव जाव' धवलमहामेहणिग्गए इव ससिव्व पियदंसणे णरवई मज्जणघरानो पडिणिक्खमइ 2 ता हयगयरहपवरवाहण (भडचडगरपहकरसंकुलाए) सेणाए पहिअकित्ती जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला, जेणेव चाउग्घंटे आसरहे, तेणेब उवागच्छइ 2 त्ता चाउग्घंटे आसरहं दुरूढे / [57] अष्ट दिवसीय महोत्सव के संपन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न प्रायुधगृहशालाशस्त्रागार से निकला / निकलकर आकाश में प्रतिपन्न–अधर स्थित हुआ। वह एक सहस्र यक्षों से '.-घिरा था। दिव्य वाद्यों की ध्वनि एवं निनाद से आकाश व्याप्त था। वह चक्ररत्न विनीता राजधानी के बीच से निकला। निकलकर गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे से होता हुआ पूर्व दिशा में मागध तीर्थ की ओर चला / राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को गंगा महानदी के दक्षिणी तट से होते हुए पूर्व दिशा में मागध तीर्थ की ओर बढ़ते हुए देखा, वह हर्षित व परितुष्ट हुआ, (चित्त में आनन्द एवं प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ, अत्यन्त सौम्य मानसिक भावों से युक्त तथा हर्षातिरेक से विकसित हृदय हो उठा।) उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुलाकर उनसे कहा-देवानुप्रियो ! ग्राभिषेक्य-अभिषेकयोग्य--प्रधानपद पर अधिष्ठित, राजा की सवारी में प्रयोजनीय हस्तिरत्न-उत्तम हाथी-को शीघ्र ही सुसज्ज करो / घोड़े, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं--पदातियों से परिगठित चतुरंगिणी सेना को तैयार करो / यथावत् प्राज्ञापालन कर मुझे सूचित करो। कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा के आदेश के अनुरूप सब किया और राजा को अवगत कराया। तत्पश्चात् राजा भरत जहाँ स्नानघर था, वहाँ पाया। उस ओर आकर स्नानघर में प्रविष्ट हुअा / वह स्नानघर मुक्ताजाल युक्त-मोतियों की अनेकानेक लड़ियों से सजे हुए झरोखों के कारण बड़ा सुन्दर था / (उसका प्रांगण विभिन्न मणियों तथा रत्नों से खचित था / उसमें रमणीय स्नानमंडप था। स्नानमंडप में अनेक प्रकार की चित्रात्मक रूप से जड़ी गई मणियों एवं रत्नों से सुशोभित स्नानपीठ था। राजा सुखपूर्वक उस पर बैठा। राजा ने शुभोदक---न अधिक उष्ण तथा न अधिक 1. देखें सूत्र संख्या 44 2. चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से प्रत्येक रत्ल एक-एक सहस्र देवों द्वारा अधिष्ठित होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org