Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 54 [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र गोतम ! उन मनुष्यों के छहों प्रकार के संहनन होते है, छहों प्रकार के संस्थान होते हैं / उनके शरीर की ऊँचाई सैकड़ों धनुष-परिमाण होती है। उनका प्रायुष्य जघन्यत: संख्यात वर्षों का कृष्टतः असंख्यात वर्षों का होता है। अपना पायूष्य पूर्ण कर उनमें से कई नरक-गति में, कई तिर्यंच-गति में, कई मनुष्य-गति में, कई देव-गति में उत्पन्न होते हैं और सिद्ध होते हैं, (बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिवृत्त होते हैं,) समग्न दुःखों का अन्त करते हैं। कुलकर-व्यवस्था 35. तोसे गं समाए पच्छिमे तिभाए पलिओवमट्टभागावसेसे एत्थ णं इमे पण्णरस कुलगरा सम्प्पज्जित्था, तंजहा-सुमई 1, पडिस्सुई 2, सोमंकरे 3, सीमंधरे 4, खेमंकरे 5, खेमंधरे 6, विमलवाहणे 7, चक्खुमं 8, जसमं 6, अभिचंदे 10, चंदामे 11, पसेणई 12, मरुदेवे 13, णाभी 14, उसमे 15, त्ति। [35] उस प्रारक के अंतिम तीसरे भाग के समाप्त होने में जब एक पल्योपम का आठवां भाग अवशिष्ट रहता है तो ये पन्द्रह कुलकर-विशिष्ट बुद्धिशाली पुरुष उत्पन्न होते हैं-१. सुमति, 2. प्रतिश्रुति, 3. सीमंकर, 4. सीमन्धर, 5. क्षेमंकर, 6. क्षेमंधर, 7. विमलवाहन, 8. चक्षुष्मान्, है. यशस्वान्, 10. अभिचन्द्र, 11. चन्द्राभ, 12. प्रसेनजित्, 13. मरुदेव, 14. नाभि, 15. ऋषभ / 36. तत्थ णं सुमई 1, पडिस्सुई 2, सीमंकरे 3, सोमंधरे 4, खेमंकरे ५–णं एतेसि पंचण्हं कुलगराणं हक्कारे णाम दंडणीई होत्था। तेणं मणुआ हक्कारेणं दंडेणं हया समाणा लज्जिना, विलज्जिया, वेड्डा, भोआ, तुसिणीना, विणओणया चिठ्ठति / तत्थ णं खेमंधर 6, विमलवाहण 7, चक्खुमं 8, जसमं 6, अभिचंदाणं १०–एतेसि पंचण्हं कुलगराणं मक्कारे णाम दंडणीई होत्था। ते णं मणुआ मक्कारेणं दंडेणं हया समाणा (लज्जिा , विलज्जिा , वेड्ढा, भीआ, तुसिणीमा, विणओणया) चिट्ठति। तस्थ णं चंदाभ 11, पसेणइ 12, मरुदेव 13, णाभि 14, उसभाणं १५-एतेसि गं पंचण्हं कुलगराणं धिक्कारे णामं दंडणीई होत्था। ते णं मणुप्रा धिक्कारेणं दंडेणं हया समाणा जाव' चिट्ठति / |36] उन पन्द्रह कुलकरों में से सुमति, प्रतिश्रुति, सीमकर, सीमन्धर तथा क्षेमंकर-इन पांच कुलकरों की हकार नामक दंड-नीति होती है। वे (उस समय के) मनुष्य हकार-"हा, यह क्या किया" इतने कथन मात्र रूप दंड से अभिहत होकर लज्जित, विलज्जित-विशेष रूप से लज्जित, व्यर्द्ध-अतिशय लज्जित, भीतियुक्त, तूष्णीक-नि:शब्द-चुप तथा विनयावनत हो जाते हैं / 1. देखें सूत्र यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org