Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ द्वितीय वक्षस्कार] अट्ठमा य सया उक्कोसिआ चउदसपुवी-संपया होत्था, उसभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स गव ओहिणाणिसहस्सा उक्कोसिमा ओहिणाणि-संपया होत्था, उसभस्स णं अरहनो कोसलिअस्स बीसं जिणसहस्सा, वीसं वेउदिवअसहस्सा छच्च सया उक्कोसिआ जिण-संपया वेउटिवय-संपया य होत्था, अरहओ कोसलिअस्स बारस विउलमइसहस्सा छच्च सया पण्णासा, बारस वाईसहस्सा छच्च सया पण्णासा, उसभस्स णं अरहनो कोसलिअस्स गइकल्लाणाणं, ठिइकल्लाणाणं, आगमेसिभदाणं, बावीसं अगुत्तरोक्वाइआणं सहस्सा णव य सया उक्कोसिआ अणुत्तरोववाइय-संपया होत्था। उसभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स बीसं समणसहस्सा सिद्धा, चत्तालीसं अज्जिआसहस्सा सिद्धा-सट्ठि अंतेवासीसहस्सा सिद्धा। . अरहओ णं उसभस्स बहवे अंतेवासी अणगारा भगवंतो-अप्पेगइआ मासपरिआया, जहा उववाइए सब्वओ अणगारवण्णओ, जाव (एवं दुमास-तिमास जाव चउमास-पंचमास-छमास-सत्तमासअट्ठमास-नवमास-दसमास-एक्कारस-मास परियाया, अप्पेगहआ वासपरियाया, दुबासपरियाया, तिवासपरियाया, अप्पेगइआ अणेगवासपरियाया,) उद्धजाणू अहोसिरा झाणकोट्टोवगया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति / अरहओ णं उसभस्स दुविहा अंतकरभूमी होत्था, तंजहा--जुगंतकरभूमी अ परिआयंतकरभूमी य, जुगंतकरभूमी जाव असंखेज्जाइं पुरिसजुगाई, परिआयंतकरभूमी अंतोमुत्तपरिआए अंतमकासी। [38] कौशलिक अर्हत् ऋषभ कुछ अधिक एक वर्ष पर्यन्त वस्त्रधारी रहे, तत्पश्चात् निर्वस्त्र / जब से वे (कौशलिक अर्हत् ऋषभ) गृहस्थ से श्रमण-धर्म में प्रवजित हुए, वे व्युत्सृष्टकाय--- कायिक परिकर्म, संस्कार, शृगार, सज्जा आदि रहित, त्यक्त देह-दैहिक ममता से अतीत-- परिषहों को ऐसे उपेक्षा-भाव से सहने वाले, मानो उनके देह हो ही नहीं, देवकृत, (मनुष्यकृत, तिर्यक्-पशुपक्षि-कृत) जो भी प्रतिलोम प्रतिकल, अनुलोम-अनुकूल उपसर्ग पाते, उन्हें वे सम्यक्---निर्भीक भाव से सहते, प्रतिकूल परिषह-जैसे कोई बेंत से, (वृक्ष की छाल से बंटी हुई रस्सी से, लोहे की चिकनी सांकल से–चाबुक से, लता दंड से,) चमड़े के कोड़े से उन्हें पीटता अथवा अनुकूल परिषहजैसे कोई उन्हें वन्दन करता, (नमस्कार करता, उनका सत्कार करता, यह समझकर कि वे कल्याणमय, मंगलमय, दिव्यतामय एवं ज्ञानमय हैं, उनकी पयूपासना करता तो वे यह सब सम्यक-अनासक्त भाव से सहते, क्षमाशील रहते, अविचल रहते। __ भगवान् ऐसे उत्तम श्रमण थे कि वे गमन, हलन-चलन आदि क्रिया, (भाषा, आहार आदि की गवेषणा, याचना, पात्र प्रादि उठाना, इधर-उधर रखना आदि) तथा मल-मूत्र, खंखार, नाक आदि का मैल त्यागना-इन पांच समितियों से युक्त थे। वे मनसमित, वाकसमित तथा कायसमित थे / वे मनोगुप्त, (वचोगुप्त, कायगुप्त-मन, वचन तथा शरीर की क्रियाओं का गोपायन-संयम करने वाले, गुप्त-शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि से सम्बद्ध विषयों में रागरहित-अन्तर्मुख गुप्तेन्द्रिय -इन्द्रियों को उनके विषय-व्यापार में लगाने को उत्सुकता से रहित,) गुप्त ब्रह्मचारी---- नियमोपनियमपूर्वक ब्रह्मचर्य का संरक्षण–परिपालन करने वाले, अक्रोध-क्रोध-रहित (अमान—मान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org