Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 42] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उनको तीन दिन के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है / वे पृथ्वी तथा पुष्प-फल, जो उन्हें कल्पवृक्षों से प्राप्त होते हैं, का आहार करते हैं / भगवन् ! उस पृथ्वी का आस्वाद कैसा होता है ? गौतम ! गुड़, खांड, शक्कर, मत्स्यंडिका-विशेष प्रकार की शक्कर, राब, पर्पट, मोदक-- एक विशेष प्रकार का लड्डु , मृणाल, पुष्पोत्तर (शर्करा विशेष), पद्मोत्तर (एक प्रकार की शक्कर), विजया, महाविजया, आकाशिका, आदर्शिका, आकाशफलोपमा, उपमा तथा अनुपमा–ये उस समय - के विशिष्ट प्रास्वाद्य पदार्थ होते हैं / भगवन् ! क्या उस पृथ्वी का आस्वाद इनके आस्वाद जैसा होता है ? गौतम ! ऐसी बात नहीं है—ऐसा नहीं होता। उस पृथ्वी का आस्वाद इनसे इष्टतर-सब इन्द्रियों के लिए इनसे कहीं अधिक सुखप्रद, (अधिक प्रियकर, अधिक कांत, अधिक मनोज्ञ-मन को भाने वाला) तथा अधिक मनोगम्य-मन को रुचने वाला होता है। भगवन् ! उन पुष्पों और फलों का आस्वाद कैसा होता है ? गौतम ! तीन समुद्र तथा हिमवान् पर्यन्त छः खंड के साम्राज्य के अधिपति चक्रवर्ती सम्राट का भोजन एक लाख स्वर्ण-मुद्राओं के व्यय से निष्पन्न होता है / वह कल्याणकर-अति सुखप्रद, प्रशस्त वर्ण, (प्रशस्त गन्ध, प्रशस्त रस तथा) प्रशस्त स्पर्श युक्त होता है, आस्वादनीय--पास्वाद योग्य, विस्वादनीय–विशेष रूप से प्रास्वाद योग्य, दीपनीय-जठराग्नि का दीपन करने वाला, दर्पणीय---- उत्साह तथा स्फूर्ति बढ़ाने वाला, मदनीय-मस्ती देने वाला, वहणीय—शरीर की धातुओं को उपचित-संबधित करने वाला एवं प्रह्लादनीय-सभी इन्द्रियों और शरीर को पालादित करने वाला होता है। भगवन् ! उन पुष्पों तथा फलों का आस्वाद क्या उस भोजन जैसा होता है ? गौतम ! ऐसा नहीं होता / उन पुष्पों एवं फलों का आस्वाद उस भोजन से इष्टतर-अधिक सुखप्रद होता है। मनुष्यों का प्रावास : जीवन-चर्या 30. ते णं भंते ! मणुया तमाहारमाहारेत्ता कहि वसहि उति ? गोयमा! रुक्खगेहालया णं ते मणुमा पण्णत्ता समणाउसो! तेसि णं भंते ! रुक्खाणं केरिसए आयारभावपडोबारे पण्णत्ते ? गोयमा! कडागारसंठिया, पेच्छाच्छत्त-भय-थूभ-तोरण-गोउर-वेइआ-चोप्फालग-अट्टालगपासाय-हम्मिश्र-गवक्ख-वालग्गयोइग्रा-वलभीघरसंठिया। अत्थण्णे इत्थ बहवे वरभवणविसिट्ठसंठाणसंठिया दुमगणा सुहसीलच्छाया पण्णत्ता समणाउसो ! [30] भगवन् ! वे मनुष्य वैसे आहार का सेवन करते हुए कहाँ निवास करते हैं ? आयुष्मन् श्रमण गौतम ! वे मनुष्य वक्ष-रूप घरों में निवास करते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org