Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ द्वितीय वक्षस्कार] ___ गौतम ! ऐसा नहीं होता / वे मनुष्य स्वामि-सेवक-भाव, प्राज्ञापक-प्राज्ञाप्य-भाव आदि से अतीत होते हैं। (7) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे मायाइ वा, पियाइ वा, भायाइ वा, भगिणोइ वा, भज्जाइ वा, पुत्ताइ वा, धूआइ वा, सुण्हाइ वा ? हंता अस्थि, णो चेव णं तेसि मणाणं तिब्वे पेम्मबंधणे समुप्पज्जइ / (7) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में माता, पिता, भाई, बहिन, पत्नी, पुत्र, पुत्री तथा पुत्र-वधू ये सब होते हैं ? गौतम ! ये सब वहाँ होते हैं, परन्तु उन मनुष्यों का उनमें तीव्र प्रेम-बन्ध उत्पन्न नहीं होता। (8) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे अरीइ वा, वेरिएइ वा, घायएइ वा, वहएइ वा, पडिणीयए वा, पच्चामित्तेइ वा ? गोयमा ! णो इणठे समझें, ववगयवेराणुसया णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो! (8) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में अरि-शत्रु, वैरिक--जाति-निबद्ध वैरोपेत-- जातिप्रसूत शत्रुभावयुक्त, घातक-दूसरे के द्वारा वध करवाने वाले, वधक-स्वयं वध करने वाले आदि द्वारा ताडित करने वाले, प्रत्यनीक--कार्योपघातक-काम बिगाड़ने वाले तथा प्रत्यमित्र-~-पहले मित्र होकर बाद में अमित्र-भाव-शत्रु-भाव रखने वाले होते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता / वे मनुष्य वैरानुबन्ध-रहित होते हैं--वैर करना, उसके फल पर पश्चात्ताप करना इत्यादि भाव उनमें नहीं होते। (E) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे मित्ताइ वा, वयंसाइ वा, णायएइ वा, संघाडिएइ वा, सहाइ वा, सुहोइ वा, संगएइ वा ? हंता अस्थि, णो चेव णं तेसि मणुप्राणं तिब्वे राग-बंधणे समुप्पज्जइ / (6) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में मित्र--स्नेहास्पद व्यक्ति, वयस्य—समवयस्क साथी, ज्ञातक-प्रगाढतर स्नेहयुक्त स्वजातीय जन अथवा सहज परिचित व्यक्ति, संघाटिक-सहचर, सखा-एक साथ खाने-पीने वाले प्रगाढतम स्नेहयुक्त मित्र, सुहृद्-सब समय साथ देने वाले, हित चाहने वाले, हितकर शिक्षा देने वाले साथी, सांगतिक-साथ रहने वाले मित्र होते हैं ? गौतम ! ये सब वहाँ होते हैं, परन्तु उन मनुष्यों का उनमें तीव्र राग-बन्धन उत्पन्न नहीं होता। (10) अस्थि णं भंते ! तोसे समाए भरहे वासे आवाहाइ वा, विवाहाइ वा, जण्णाइ वा, सद्धाइ वा, थालीपागाइ वा, मियपिंड-निवेदणाइवा? णो इण? सम8, बवगय- आवाह-विवाह-जण्ण-सद्ध-थालीपाक-मियपिंड-निवेदणाइ वा णं ते मणुप्रा पण्णत्ता समणाउसो ! (10) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में आवाह-विवाह से पूर्व ताम्बूल-दानोत्सव अथवा वाग्दान रूप उत्सव, विवाह-परिणयोत्सव, यज्ञ-प्रतिदिन अपने-अपने इष्ट-देव की पूजा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org