Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ द्वितीय वक्षस्कार] गौतम ! होते हैं, पर वे मनुष्यों के लिए पाबाधाजनक, (व्यावाधाजनक तथा दैहिक पीडा व विकृतिजनक) नहीं होते / वे सर्प, अजगर (आदि सरीसृप जातीय--रेंगकर चलने वाले जीव)प्रकृति से भद्र होते हैं। (22) अस्थि मां भंते ! तोसे समाए भरहे वासे डिबाइ वा, उमराइ वा, कलहबोलखारवइरमहाजुद्धाइ वा, महासंगामाइ वा, महासत्थपडणाइ वा, महापुरिसपडणाइ वा, महारुहिरणिवडणाइ वा? गोयमा ! णो इण? सम?, ववगयवेराणुबंधा णं ते मणुआ पण्णत्ता। (22) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में डिम्बभय-भयावह स्थिति, डमर-राष्ट्र में आभ्यन्तर, बाह्य उपद्रव, कलह-वाग्युद्ध, बोल–अनेक प्रार्त व्यक्तियों का चीत्कार, क्षार-खार, पारस्परिक ईर्ष्या, वैर असहनशीलता के कारण हिंस्य-हिंसक भाव, तदुन्मुख अध्यवसाय, महायुद्ध---- व्यूह-रचना तथा व्यवस्थावजित महारण, महासंग्राम-व्यूह-रचना एवं व्यवस्थायुक्त महारण, महाशस्त्र-पतन-नागवाण, तामसबाण, पवनबाण, अग्निबाण प्रादि दिव्य अस्त्रों का प्रयोग तथा महापुरुष-पतन-छत्रपति आदि विशिष्ट पुरुषों का वध, महारुधिर-निपतन-छत्रपति आदि विशिष्ट जनों का रक्त-प्रवाह...खून बहाना-ये सब होते हैं ? गौतम.! ऐसा नहीं होता। वे मनुष्य वैरानुबन्ध—शत्रुत्व के संस्कार से रहित होते हैं / (23) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे दुब्भूआणि वा, कुलरोगाइ वा, गामरोगाइ वा, मंडलरोगाइ वा, पोट्टरोगाइ वा, सीसवेअणाइ वा, कण्णोद्वच्छिणहदंतवेअणाइ वा, कासाइ वा, सासाइ वा, सोसाइ वा, दाहाइ वा, अरिसाइ बा, अजीरगाइ वा, दओदराइ वा, पंडुरोगाइ वा, भगंदराइ वा, एगाहियाइ वा, बेआहियाइ वा, तेत्राहिाइ वा, चउस्थाहियाइ वा, इंदग्गहाइ वा, धणुग्गहाइ वा, खंदग्गहाइ वा, जक्खग्गहाइ वा, भूअग्गहाइ वा, मत्थसूलाइ वा, हिअयसूलाइ वा, पोट्टसूलाइ वा, कुच्छिसूलाइ वा, जोणिसूलाइ वा, गाममारीइ वा, (प्रागरमारीइ वा, गयरमारीइ वा, णिगममारीइ वा, रायहाणीमारीइ वा, खेडमारीइ वा, कब्बडमारीइ वा, मडंबमारीइ वा, दोणमुहमारीइ वा, पट्टणमारीइ वा, आसममारोइ वा, संवाहमारीइ वा,) सण्णिवेसमारीइ वा, पाणिक्खया, जणक्खया, वसणभूप्रमणारिआ? गोयमा ! णो इण? सम?, ववगयरोगायंका णं ते मणुपा पण्णत्ता समणाउसो ! (23) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में दुर्भूत—मनुष्य या धान्य आदि के लिए उपद्रव हेतु, चूहों टिड्डियों आदि द्वारा उत्पादित ईति' संकट, कुल-रोग-कुलक्रम से आये हुए रोग, ग्रामरोग---गाँव भर में व्याप्त रोग, मंडल-रोग-ग्रामसमूहात्मक भूभाग में व्याप्त रोग, पोट्ट-रोग----पेट सम्बन्धी रोग, शीर्ष-वेदना--मस्तक-पीडा, कर्ण-वेदना, प्रोष्ठ-वेदना, नेत्र-वेदना, नव-वेदना, दंतवेदना, खांसी, श्वास-रोग, शोष-क्षय तपेदिक, दाह-जलन, अर्श-गुदांकुर-बवासीर, अजीर्ण, जलोदर, पांडु रोग-पीलिया, भगन्दर, एक दिन से आने वाला ज्वर, दो दिन से आने वाला ज्वर, 1. अतिवृष्टिरनावृष्टिर्मूषिकाः शलभाः शुकाः / प्रत्यासन्नाशच राजानः पडेता ईतयः स्मृताः // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org