Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ द्वितीय बक्षस्कार] [41 प्रकार का आतंक-रोग या विकार नहीं था। वे देह के अन्तर्वर्ती पवन के उचित वेग-गतिशीलता संयुक्त, कंक पक्षी की तरह निर्दोष गुदाशय से युक्त एवं कबूतर की तरह प्रबल पाचनशक्ति वाले थे। उनके अपान-स्थान पक्षी की ज्यों निर्लेप थे। उनके पृष्ठभाग-पार्श्वभाग-पसवाड़े तथा ऊरु सुदृढ़ थे / वे छह हजार धनुष ऊँचे होते थे। आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उन मनुष्यों के पसलियों की दो सौ छप्पन हड्डियां होती थीं / उनके सांस पद्म एवं उत्पल की-सी अथवा पद्म तथा कुष्ठ नामक गन्ध-द्रव्यों की-सी सुगन्ध लिए होते थे, जिससे उनके मुह सदा सुवासित रहते थे। वे मनुष्य शान्त प्रकृति के थे। उनके जीवन में क्रोध, मान, माया और लोभ की मात्रा प्रतनु-मन्द या हलकी थी / उनका व्यवहार मृदु-मनोज्ञपरिणाम-सुखावह होता था। वे प्रालीन—गुरुजन के अनुशासन में रहने वाले अथवा सब क्रियाओं में लीन–गुप्त-समुचित चेष्टारत थे। वे भद्र-कल्याणभाक्, विनीत-बड़ों के प्रति विनयशील, अल्पेच्छ-अल्प आकांक्षायुक्त, अपने पास (पर्युषित खाद्य प्रादि का) संग्रह नहीं रखने वाले, भवनों की आकृति के वृक्षों के भीतर वसने वाले और इच्छानुसार काम शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्शमय भोग भोगने वाले थे। मनुष्यों का आहार 26. तेसि णं भंते ! मणुपाणं केवइकालस्स आहारट्टे समुष्पज्जइ ? गोयमा ! अट्ठमभत्तस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ, पुढवीपुप्फफलाहारा गं ते मणुश्रा पण्णत्ता समणाउसो! तोसे णं भंते ! पुढवीए केरिसए प्रासाए पण्णत्ते ? गोयमा ! से जहाणामए गुलेइ वा, खंडेइ वा, सक्कराइ वा, मच्छंडिभाइ वा, पप्पडमोपएइ वा, भिसेइ वा, पुप्फुत्तराइ वा, पउमुत्तराइ वा, विजयाइ वा, महाविजयाइ बा, प्राकासिमाइ वा, आदंसिप्राइ वा, प्रागासफलोवमाइ वा, उवमाइ वा, अशोकमाइ वा। एयावे? गोयमा ! णो इणठे समठे, सा णं पुढवी इतो इट्टतरित्रा चेव, (पियतरिया चेव, कंततरिया चेव, मणुण्णतरिया चेव,) मणामतरिया चेव आसाएणं पण्णत्ता। तेसि णं भंते ! पुप्फफलाणं केरिसए प्रासाए पण्णते? गोयमा ! से जहाणामए रणो चाउरंतचक्कवट्टिस्स कल्लाणे भोरणजाए सयसहस्सनिष्फन्ने वण्णेणुववेए, (गंधेणं उववेए, रसेणं उववेए,) फासेणं उक्वेए, प्रासायणिज्जे, विसायणिज्जे, दिप्पणिज्जे, टप्पणिज्जे. मयणिज्जे.बिणिज्जे, सविदिअगायपह लायणिज्जे-भवे एश्रारूवे? गोयमा ! जो इणठे समठे, तेसि णं पुप्फफलाणं एत्तो इट्टतराए चेव जाव' प्रासाए पण्णत्ते। [26] भगवन् ! उन मनुष्यों को कितने समय बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ? --- 1. देखें सूत्र यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org