Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पावश्यकनियुक्ति, विषष्टिशलाकापुरुषचरित और महापुराण में सम्राट भरत के अन्य अनेक प्रसंग भी हैं, जिनका उल्लेख जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में नहीं हुमा है। उन ग्रन्थों में पाए हुए कुछ प्रेरक प्रसंग प्रबुश पाठकों की जानकारी हेतु हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। प्रमासक्त भरत सम्राट भरत ने देखा-मेरे ९९भ्राता संयम-साधना के कठोर कंटकाकीर्ण मार्ग पर बढ़ चुके हैं पर मैं अभी भी संसार के दलदल में फंसा है। उनके अन्तर्मानस में वैराग्य का पयोधि उछाले मारने लगा। वे राज्यधी का उपभोग करते हुए भी अनासक्त हो गए / एक बार भगवान ऋषभदेव विनीता नगरी में पधारे / पावन प्रवचन चल रहा था। एक जिज्ञासु ने प्रबचम के बीच ही प्रश्न किया-भगवन् ! भरत चक्रवर्ती मरकर कहां जाएंगे? उत्तर में भगवान ने कहा-मोक्ष में / उत्तर सुनकर प्रश्नकर्ता का स्वर धीरे से फूट पड़ा-भगवान् के मन में पुत्र के प्रति मोह और पक्षपात है। वे शब्द सम्राट भरत के कर्णकुहरों में गिरे / भरत चिन्तन करने लगे कि मेरे कारण इस व्यक्ति ने भगवान् पर आक्षेप किया है। भगवान् के वचनों पर इसे श्रद्धा नहीं है / मुझे ऐसा उपाय करना चाहिये जिससे यह भगवान के वचनों के प्रति श्रद्धालु बने / दूसरे दिन तेल का कटोरा उस प्रश्नकर्ता के हाथ में थमाते हए भरत ने कहा-तुम विनीता के सभी बाजारों में परिभ्रमण करो पर एक बूंद भी नीचे न गिरने पाए। बंद नीचे गिरने पर तुम्हें फांसी के फन्दे पर झलना पड़ेगा। उस दिन विशेष रूप से बाजारों को सजाया गया था। स्थान-स्थान पर नत्य, संगीत और नाटकों का आयोजन था। जब वह पुनः लौटकर भरत के पास पहुँचा तो भरत ने पूछा-तुमने क्या-क्या वस्तुएं देखी हैं ? तुम्हें संगीत की स्वरलहरियां कैसी लगी ? उसने निवेदन किया कि वहाँ मैं नत्य, संगीत, नाटक कैसे देख सकता था ? भरत ने कहा-ग्रांखों के सामने नत्य हो रहे थे पर तुम देख न सके / कानों में स्वरलहरियां गिर रहीं थीं पर तुम सुन न सके / क्योंकि तुम्हारे अन्तर्मानस में मृत्यु का भय लगा हुआ था। वैसे ही मैं राज्यश्री का उपभोग करते हुए भी अनासक्त हूँ। मेरा मन सभी से उपरत है। वह समझ गया कि यह उपक्रम सम्राट् भरत ने क्यों किया? उसे भगवान् ऋषभदेव के वचन पर पूर्ण श्रद्धा हो गई। यह थी भरत के जीवन में अनासक्ति जिससे उन्होंने 'राजेश्वरी सो नरकेश्वरी' की उक्ति को मिथ्या सिद्ध कर दिया। बाहुबली से युद्ध जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में सम्राट् भरत षट्खण्ड पर अपनी विजयश्री लहरा कर विनीता लौटे और वहां वे प्रानन्द से राज्यश्री का उपभोग करने लगे। बाहुबली के साथ युद्ध का वर्णन नहीं है पर आवश्यकनियुक्ति,१४ मावश्यकचणि,१५ त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित 216 प्रति ग्रन्थों में भरत के द्वारा बाहुबली को यह संदेश प्रेषित किया गया कि या तो तुम मेरी अधीनता स्वीकार करो, नहीं तो युद्ध के लिये सन्नद्ध हो जायो / क्योंकि जब तक बाहुबली उनकी अधीनता स्वीकार नहीं करते तब तक पूर्ण विजय नहीं थी / 98 भ्राता तो प्रथम संदेश से ही राज्य छोड़कर प्रवजित हो चुके थे, उन्होंने भरत की अधीनता स्वीकार करने के स्थान पर धर्म की शरण लेना अधिक उचित समझा था। पर बाहुबली भरत के संदेश से तिलमिला उठे और उन्होंने दूत को यह संदेश दिया कि मेरे 98 भ्रातात्रों का राज्य छीन कर भी भरत संतुष्ट नहीं हुए ? वह मेरे राज्य को भी पाने के लिये ललक रहे हैं ! उन्हें 214. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 32-35 215. आवश्यकणि, पृ. 210 216. त्रिषष्टिशलाका पु. च. पवं 1, सर्ग 5, श्लोक 723-724 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org