Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम वक्षस्कार] को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप--मनोज्ञ-मन को अपने में रमा लेने वाले तथा प्रतिरूप–मन में बस जाने वाले हैं। उन विद्याधरनगरों में विद्याधर राजा निवास करते हैं। वे महाहिमवान् पर्वत के सदृश महत्ता तथा मलय, मेरु एवं महेन्द्र संज्ञक पर्वतों के सदृश प्रधानता या विशिष्टता लिये हुए हैं / 15. विज्जाहरसेढीणं भंते ! मणुआणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा ! ते णं मणुआ बहुसंघयणा, बहुसंठाणा, बहुउच्चत्तपज्जवा, बहुआउपज्जवा, (बहूई वासाइं आउं पालेति, पालित्ता अप्पेगइया णिरयगामी, अप्पेगइया तिरियगामी, अप्पेगइआ मणुयगामी, अप्पेगहआ देवगामी, अप्पेगइआ सिझंति बुज्झति मुच्चंति परिणिव्वायंति) सम्वदुक्खाणमंतं करेंति / तासि णं विज्जाहरसेढोणं बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ वेअदृस्स पच्चयस्स उभओ पासि दस दस जोअणाई उट्ट उप्पइत्ता एत्थ मं दुवे अभिओगसेढीयो पण्णत्तानो-पाईणपडीणाययाओ, उदीणदाहिणवित्थिपणाओ, दस दस जोप्रणाई विक्खंभेणं, पब्वयसमियामो प्रायामेणं, उभो पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहि दोहि वणहि संपरिक्खित्तानो वष्णो दोहवि पब्वयसमियानो प्रआयामेणं। [15] भगवन् ! विद्याधरश्रेणियों के मनुष्यों का प्राकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! वहाँ के मनुष्यों का संहनन, संस्थान, ऊँचाई एवं आयुष्य बहुत प्रकार का है। (वे बहुत वर्षों का प्रायुष्य भोगते हैं / उनमें कई नरकगति में, कई तिर्यञ्चगति में, कई मनुष्यगति में तथा कई देवगति में जाते हैं / कई सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिर्वृत होते हैं,) सब दुःखों का अंत करते हैं। उन विद्याधर-श्रेणियों के भूमिभाग से वैताढ्य पर्वत के दोनों ओर दश-दश योजन ऊपर दो आभियोग्य-श्रेणियां--ग्राभियोगिक देवों शक्र, लोकपाल आदि के आज्ञापालक देवों--व्यन्तर देवविशेषों की आवास-पंक्तियां हैं। वे पूर्व-पश्चिम लम्बी तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ी हैं। उनकी चौड़ाई दश-दश योजन तथा लम्बाई पर्वत जितनी है। वे दोनों श्रेणियां अपने दोनों ओर दो-दो प वेदिकाओं एवं दो- दो वनखण्डों से परिवेष्टित हैं / लम्बाई में दोनों पर्वत-जितनी हैं / वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। 16. अभियोगसेढोणं भंते ! केरिसए प्रायारभावपडोयारे पण्णते? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव' तणेहि उवसोभिए वष्णाई जाब तणाणं सहोत्ति। तासि णं अभिप्रोगसेढीणं तत्थ देसे तहि तहिं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीयो अप्रासयंति, सयंति, (चिट्ठति, णीसीअंति, तुअट्टति, रमंति, ललंति, कोलंति, मेहंति पुरापोराणाणं सुपरक्कंताणं, सुभाणं, कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं कल्लाण-) फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणा विहरंति / तासु णं पाभियोगसेढीसु सक्कस देविदस्स देवररणो सोमजमवरुणवेसमणकाइयाणं आभिओगाणं देवाणं बहवे भवणा पष्णता / ते णं भवणा बाहिं वट्टा, अंतो चउरंसा वण्णओ। तत्थ णं सक्कस्स देविदस्स, देवरण्णो सोमजमवरुणवेसमणकाइमा बहवे प्राभिओगा देवा महिड्डिा, महज्जुईआ, (महाबला, महायसा,) महासोक्खा पलिओवमद्विइया परिवति / 1. देखें सूत्र संख्या 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org