Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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बीओ उद्देसओ
द्वितीय उद्देशक
आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
अष्टमी पर्वादि में आहार ग्रहण-विधि निषेध -
३३५. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावतिकुलं पिंडवातपडियाए अणुपविट्ठे समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा, असणं वा ४ अट्ठमिपोसहिएसु वा अद्धमासिएस वा मासि दोमासिएस वा तेमासिएसु वा चाउमासिएसु वा पंचमासिएसु वा छम्मासिएसु वा उऊसु १ वा उदुसंधीसु वा उदुपरिट्टेसु वा बहवे समण-माहण- अतिहि-किवण-वणीमगे एगातो उक्खातो परिएसिज्जमाणे पेहाए, दोहिं उक्खाहिं परिएसिज्जमाणे पेहाए, तिहिं उक्खाहि परिएसिज्जमाणे पेहाए, कुंभीमुहातो वा कलोवातितो वा संणिहिसंणिचयातो वा परिएसिज्जमाणे पेहाए, तहप्पगारं असणं वा ४ अपुरिसंतरकडं जाव अणासेवितं अफासुयं अणेसणिज्जं जाव णो पडिगाहेज्जा ।
अह पुण एवं जाणेज्जा पुरिसंतरकडं जाव आसेवितं कासुयं जाव पडिगाहेज्जा ।
३३५. वह भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में आहार -प्राप्ति के निमित्त प्रविष्ट होने पर अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य रूप आहार के विषय में यह जाने कि यह आहार अष्टमी पौषधव्रत के उत्सवों के उपलक्ष्य में तथा अर्द्धमासिक (पाक्षिक), मासिक, द्विमासिक, त्रैमासिक, चातुर्मासिक, पंचमासिक और षाण्मासिक उत्सवों के उपलक्ष्य में तथा ऋतुओं, ऋतुसन्धियों एवं ऋतु परिवर्तनों के उत्सवों के उपलक्ष्य में (बना है, उसे ) बहुत-से श्रमण, माहन (ब्राह्मण), अतिथि, दरिद्र एवं भिखारियों को एक बर्तन से (लेकर) - परोसते हुए देखकर, दो बर्तनों से (लेकर) परोसते हुए देखकर, या तीन बर्तनों से (लेकर) परोसते हुए देखकर एवं चार बर्तनों से (लेकर) परोसते हुए देखकर तथा संकड़े मुँह वाली कुम्भी और बाँस की टोकरी में से (लेकर) एवं संचित किए हुए गोरस (दूध, दही, घी आदि ) आदि पदार्थों को परोसते हुए देखकर, जो कि पुरुषान्तरकृत नहीं है, घर से बाहर निकाला हुआ नहीं है, दाता द्वारा अधिकृत नहीं है, न परिभुक्त और आसेवित है, तो ऐसे चारों प्रकार के आहार को अप्रासुक और अनेषणीय समझ कर मिलने पर भी ग्रहण न करे ।
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१. 'उऊसु' के कहीं-कहीं पाठान्तर 'उदुएसु' 'उतूएसु' या 'उदुसु' मिलते हैं। 'उऊसु' का अर्थ 'ऋतुओं' में होता है, जबकि चूर्णिकार ने 'उदुसु' पाठ मानकर अर्थ किया है - - 'सरितादिसु' नदी आदि में।
२. चूर्णिकार ने इन शब्दों की व्याख्या इस प्रकार की है— कुंभीं कुंभप्रमाणा, कलसी गिहिकुंभेहिं भरिज्जति, कलवादी पच्छी पिडगमादी; अर्थात् – कुंभी घड़े जितनी बड़ी होती है। कलसी जिसे गृह के घड़ों से भरा जाता है। कलवादी टोकरी, पिटारी आदि।
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३. सन्निधी का अर्थ चूर्णिकार के शब्दों में - सन्निधी – गोरसो संचिणओ घृत गुलमादि। अर्थात् - सन्निधि का अर्थ है गोरस और संचिणओ का अर्थ है। - घृत गुड़ आदि ।