Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र ४६०
१६५ . विवेचन- मल-मूत्र-विसर्जनार्थ भूमि प्रतिलेखन प्रस्तुत सूत्र में उपाश्रय में ठहरने से पूर्व साधु को विसर्जन भूमि को देख-भाल लेने पर जोर दिया है। जो साधु ऐसा नहीं करता, उसे स्व-पर-विराधना की महाहानि का दुष्परिणाम देखना पड़ता है। उत्तराध्ययन सूत्र में ऐसी चेतन स्थण्डिल भूमि में १० विशेषताएँ होनी अनिवार्य बताई हैं -(१) जहाँ जनता का आवागमन न हो, न किसी की दृष्टि पड़ती हो, (२) जिस स्थान का उपयोग करने से दूसरे को किसी प्रकार का कष्ट या नुकसान न हो, (३) जो स्थान सम हो, (४) जहाँ घास या पत्ते न हों, (५) चींटी कुंथु आदि जीवजन्तु से रहित हो, (६) वह स्थान बहुत ही संकीर्ण न हो, (७) जिसके नीचे की भूमि अचित्त हो, (८) अपने निवास स्थान-गाँव से दूर हो, (९) जहाँ चूहे आदि के बिल न हो, (१०) जहाँ प्राणी या बीज फैले हुए न हो। २
विकाल में उच्चार-प्रस्रवण भूमि की प्रतिलेखना करना, साधु समाचारी का महत्त्वपूर्ण अंग है, इसकी उपेक्षा से जीवहिंसा का दोष लगने की संभावना है । ३ शय्या-शयनादि विवेक
. ४६०.[१] सेभिक्खूवा २ अभिकंखेजा सेज्जासंथारगभूमि पडिलेहित्तए,अण्णत्थ आयरिएण वा उवज्झाएण वा जाव गणावच्छेइएण' वा बालेण वा वुड्डेण वा सेहेण वा गिलाणेण वा आएसेण वा अंतेण वा मझेण वा समेण वा विसमेण वा पवाएण वाणिवातेण वा पडिलेहिय २ पमजिय २ ततो संजयामेव बहुफासुयं सेजासंथारगं संथरेजा।
[२] से भिक्खू वा २ बहुफासुयं सेजासंथारगं संथरित्ता अभिकंखेजा बहुफासुए सेज्जासंथारए दुरुहित्तए। से भिक्खू वा २ बहुफासुए सेज्जासंथारए दुरुहमाणे पुव्वामेण ससीसोवरियं कायं पाए य पमजिय २ ततो संजयामेव बहुफासुए सेज्जासंथारए दुरुहेजा दुरुहित्ता ततो संजयामेव बहुफासुए सेज्जासंथारए सएज्जा।
[३] से भिक्खू वा २ बहुफासुए सेजासंथारए सयमाणे णो अण्णमण्णस्स हत्थेण हत्थं पादेण पादं काएण कायं आसाएजा।से अणासायमाणे ततो संजयामेव बहुफासुए सेज्जासंथारए सएज्जा।
४६१. से भिक्खू वा ऊससमाणे वा ७ णीससमाणे वा कासमाणे वा छीयमाणे वा (१) आचारांग मूल तथा वृत्ति पत्रांक ३७३ (२) उत्तराध्ययन सूत्र अ०२४, गा० १६, १७, १८ (३) आचारांग वृत्ति पत्रांक ३७३ (४) यहाँ जाव शब्द से उवज्झाएण वा से लेकर गणावच्छेइएण वा तक का पाठ सूत्र ३९९ के अनुसार समझें। (५) गणावच्छेइएण के स्थान पर गणावच्छेएण पाठान्तर प्राप्त है। (६) आसाएज्जा का अर्थ चूर्णिकार ने यों किया है- आसादेति-संघद्देति। अर्थात्- आसावेति (आसाएति)
का अर्थ है-संघट्टा (स्पर्श) करता है। (७) ऊसमाणे वा णीससमाणे वा के स्थान पर पाठान्तर है- 'ऊसासमाणे वा नीसासमाणे वा।' .