Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 438
________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र ७८६-७८८ ४१३ (४) अहावरा चउत्था भावणा—णातिमत्तपाण-भोयणभोई से निग्गंथे, णो पणीयरस भोयणभोइ। केवली बूया-अतिमत्तपाण-भोयणभोई से निग्गंथे पणीयरसभोयणभोइ त्ति संतिभेदा जाव भंसेज्जा। णातिमत्तंपाण-भोयणभोई से निग्गंथे, णो पणीतरस भोयणभोइ त्ति चउत्था भावणा। (५) अहावरा पंचमा भावणा—णो णिग्गंथे इत्थी-पसु-पंडगसंसत्ताई सयणा-ऽऽ सणाइं सेवित्तए सिया।केवली बूया—निग्गंथे णं इत्थी-पसु-पंडगसंसत्ताइंसयणा-ऽऽ सणाई सेवेमाणे संतिभेदा जाव भंसेजा। णो णिग्गंथे इत्थी-पसु-पंडगसंसत्ताई सयणाऽऽसणाई सेवित्तए सिय त्ति पंचमा भावणा। ७८८. एत्ताव ताव महव्वए सम्मं काएण जाव आराधिते यावि भवति। चउत्थं भंते ! महव्वयं ( मेहुणातो वेरमणं)। ७८६. इसके पश्चात् भगवन् ! मैं चतुर्थ महाव्रत स्वीकार करता हूँ, इसके सन्दर्भ में समस्त प्रकार के मैथुन-विषय सेवन का प्रत्याख्यान करता हूँ। देव-सम्बन्धी, मनुष्य-सम्बन्धी और तिर्यञ्चसम्बन्धी मैथुन का स्वयं सेवन नहीं करूँगा, न दूसरे से एतत् सम्बन्धी मैथुन-सेवन कराऊँगा और न ही मैथुन सेवन करने वाले का अनुमोदन करूँगा। शेष समस्त वर्णन अदत्तादान-विरमण महाव्रत विषयक प्रकरण के - 'आत्मा के अदत्तादान-पाप का व्युत्सर्ग करता हूँ', तक के पाठ के अनुसार समझ लेना चाहिए। ७८७. उस चतुर्थ महाव्रत की ये पाँच भावनाएँ हैं (१) उन पांचों भावनाओं में पहली भावना इस प्रकार है-निर्ग्रन्थ साधु बार-बार स्त्रियों की काम-जनक कथा (बातचीत) न कहे। केवली भगवान् कहते हैं-बार-बार स्त्रियों की कथा कहने वाला निर्ग्रन्थ साधु शान्तिरूप चारित्र का और शान्तिरूप ब्रह्मचर्य का भंग करने वाला होता है, तथा शान्तिरूप केवली-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अत: निर्ग्रन्थ साधु को स्त्रियों की कथा बार-बार नहीं करनी चाहिए। यह प्रथम भावना है। (२) इसके पश्चात् दूसरी भावना यह है- निर्ग्रन्थ साधु काम-राग से स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को सामान्य रूप से या विशेषरूप से न देखे। केवली भगवान् कहते हैंस्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों का कामराग-पूर्वक सामान्य या विशेष रूप से अवलोकन करने वाला साधु शान्तिरूप चारित्र का नाश तथा शान्तिरूप ब्रह्मचर्य का भंग करता है, तथा शान्तिरूप केवली-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अत: निर्ग्रन्थ को स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों का कामरागपूर्वक सामान्य अथवा विशेष रूप से अवलोकन नहीं करना चाहिए। यह दूसरी भावना १. 'णातिमत्तपाणं ....' के बदले पाठान्तर है- 'णो अतिमत्तपाण .... णो अतिमत्तपाणभोयणभोती। २. 'सेवेमाणे' के बदले पाठान्तर है-सेवमाणे।

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