Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 448
________________ ४२३ ॥चउत्था चूला॥ सोलसं अज्झयणं विमुत्ती' विमुक्तिः सोलहवाँ अध्ययन अनित्य भावना-बोध ७९३. अणिच्चमावासमुवेंति जंतुणो, पलोयए सोच्चमदं अणुत्तरं। विओसिरे विण्णु अगारबंधणं, अभीरु आरंभपरिग्गहं चए ॥१३५॥ ७९३. संसार के समस्त प्राणी मनुष्यादि जिन योनियों में जन्म लेते हैं, अथवा जिन शरीर आदि में आत्माएँ आवास प्राप्त करती हैं, वे सब स्थान अनित्य हैं। सर्वश्रेष्ठ (अनुत्तर) मौनीन्द्र प्रवचन में कथित यह वचन सुनकर उस पर अन्तर की गहराई से पर्यालोचन करे तथा समस्त भयों से मुक्त बना हुआ विवेकी पुरुष आगारिक (घरबार के) बंधनों का व्युत्सर्ग कर दे, एवं आरम्भ (सावध कार्य) और परिग्रह का त्याग कर दे। विवेचन-अनित्यत्व भावना : आरंभ-परिग्रहादि त्याग प्रेरक-प्रस्तुत सूत्र में संसार या प्राणियों के आवासरूप शरीरादि स्थानों को अनित्य जानकर विविध बन्धनों और आरम्भ-परिग्रह का त्याग करने की प्रेरणा दी गई है। 'अणिच्चमावासमुवेंति जंतवो' की व्याख्या- मनुष्य आदि भव (जन्म) में वास, या उस-उस शरीर में वास अनित्य है, अथवा सारा ही संसारवास अनित्य है, जिसे सांसारिक जीव प्राप्त करते हैं। तात्पर्य यह है कि चारों गतियों में जिन-जिन योनियों में जीव उत्पन्न होते हैं, वे सब अनित्य हैं । इस अनुत्तर जिनवाणी को सुनकर विवेकशील पुरुष उस पर पूर्णतया पर्यालोचन करे, कि भगवान् का कथन यथार्थ है। अनित्यता क्यों है? इसका सामाधान दिया गया है-देवों की जैसी चिरकालस्थिति है, वैसी मनुष्यों की नहीं है। मनुष्यायु अल्पकालीन स्थिति वाली है। संसार को केले के गर्भ की तरह निःसार जानकर विद्वान् अगार-बंधन-पुत्र-कलत्र धन-धान्य-गृहादिरूप गहपाश अथवा चर्णिकार के अनुसार स्त्री और गृहरूप आगारबन्धन का त्याग करे। 'अभीरु आरंभ-परिग्गहं चए': व्याख्या—इसके अतिरिक्त निर्भीक सप्तविधभय रहित एवं परीषहों और उपसर्गों से नहीं घबराने वाला साधु आरम्भ–सावध कार्य और परिग्रह-बाह्य१. विओसिरे के बदले पाठान्तर है-वियोसिरे। २. परिग्गहं चए के बदले पाठान्तर है-परिग्गहं चये, परिग्गहं वा। ३. (क) आचारांग चूर्णि० मू० पाठ० टि० पृ० २९४ (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक ४२९

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