Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 452
________________ सोलहवाँ अध्ययन : सूत्र ७९६-८०० ४२७ (२) क्षमादि दस धर्मों का पालक वितृष्ण एवं धर्मध्यानी मुनि की तपस्या, प्रज्ञा एवं कीर्ति अग्निशिखा के तेज की तरह बढ़ती है, वही कर्ममुक्ति दिलाने में समर्थ है। ___ (३) महाव्रतरूपी सूर्य कर्मसमूह रूप अन्धकार को नष्ट करके आत्मा को त्रिलोक-प्रकाशक बना देते हैं। (४) कर्मपाशबद्ध लोगों-गृहस्थों के संसर्ग से तथा स्त्रीजन एवं इह-पर-लोक सम्बन्धी कामना से भिक्षु दूर रहे। (५) सर्वसंगमुक्त, परिज्ञा (विवेक) चारी, धृतिमान, दुःखसहिष्णु भिक्षु के कर्ममल उसी तरह साफ हो जाते हैं, जिस तरह अग्नि से चांदी का मैल साफ हो जाता है। 'उवेहमाणे ... अकंतदुक्खा'–उन बालजनों के प्रति या उन कठोर शब्द-स्पर्शों के प्रति उपेक्षा करता हुआ साधु । कुलसेहिं- अहिंसादि में प्रवृत्त साधकों के साथ अहिंसा का आचरण करता रहे। क्योंकि सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है, बस और स्थावर दोनों प्रकार के संसारवर्ती प्राणी दुःखी हैं, यह जानकर समस्त जीवों की हिंसा न करे। सव्वंसहे' के बदले पाठान्तर सव्वेपया' चूर्णिकार को मान्य प्रतीत होता है। अणंत जिणेण-चूर्णिकार के अनुसार अर्थ..... मनुष्य, तिर्यंच आदि रूप अनन्त संसार है, वह जिसने जीत लिया, वह अनन्तजित होता है। महव्वता खेमपदा पवेदिता भावदिशाओं (षट्जीवनिकायों) का पालन करने के लिए क्षेमपद वाले (कल्याणकारी ) महाव्रत प्रतिपादित किए हैं, (उन अनन्त जिन, त्राता ने)। ___'महागुरु निस्सयरा उदीरिता'-चूर्णिकार के अनुसार —महाव्रत बड़ी कठिनता से ग्रहण किये जाते हैं, तथा गरुतम –भारी होने के कारण ये महागरु कहलाते हैं। निस्सयरा का अर्थ हैणिस्सा करेंति खवंति–तीक्ष्ण करते या क्षय करते हैं। महाव्रत कैसे क्षपणकर कहे गए हैं? जैसे तीनों दिशाओं के अन्धकार को सूर्य मिटाकर प्रकाश देता है, वेसे ही महाव्रत त्रिजगत् के कर्म रूप अन्धकार को मिटकर आत्मज्ञान का प्रकाश कर देता है। ___ 'सिंतेहिं भिक्खू असिते परिव्वए' की व्याख्या चूर्णिकार के अनुसार- 'जो अष्टविध कर्म से बद्ध हैं, अथवा गृहपाशों से बद्ध हैं, उनमें अनासक्त होकर असित-गृहपाश से निर्गत कर्मक्षयकरने में उद्यत मुनि सम्यक् रूप से विचरण करे। 'असजमित्थीस चएज पयणं'- स्त्रियों में असक्त रहे और पजा-सत्कार की आकांक्षा छोड़े। प्रथम में मूलगुण की और दूसरे में उत्तरगुण की सुरक्षा का प्रतिपादन है। अणिस्सिए लोगमिणंतहा परं इहलोक और परलोक के प्रति अनाश्रित रहे। तात्पर्य यह है कि मूल-उत्तरगुणावस्थित साधु इहलोक और परलोक के निमित्त तप न करे। जैसे धम्मिल ने इहलोक के निमित्त तप किया था और ब्रह्मदत्त ने परलोक के निमित्त। ण मिजति कामगुणेहिं पंडिते- कामगुण के कटु विपाक का द्रष्टा पंडित साधु काम१. आचारांग वृत्ति पत्रांक ४३० के आधार पर

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