Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
णावाउस्सिचणएण वा चेलेण वा मट्टियाए वा कुसपत्तएण वा कुविंदेण वा पिहेहि। णो से तं परिणं [परिजाणेजा?]।
४८२. से भिक्खु वा २ णावाए उत्तिंगेण उदयं आसवमाणं पेहाए, उवरूवरि णावं कजलावेमाणं पेहाए, णो परं उवसंकमित्तु एवं बूया—आउसंतो गाहावति। एतं ते णावाए उदयं उत्तिंगेण आसवति, उवरूवरि वा णावा कजलावेति। एतप्पगारं मणं वा वायं वा णो पुरतो कट्ट विहरेजा। अप्पुस्सुए अबहिलेस्से एगत्तिगएणं अप्पाणं वियोसेज समाधीए। ततो संजतामेव णावासंतारिमे उदए आहारियं रीएज्जा। ...
४७४. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी यह जाने कि मार्ग में नौका द्वारा पार कर सकने योग्य जल (जलमार्ग) है; (तो वह नौका द्वारा उस मार्ग को पार कर सकता है।) परन्तु यदि वह यह जाने किनौका असंयत -गृहस्थ साधु के निमित्त मूल्य देकर (किराये से) खरीद कर रहा है, या उधार ले रहा है, या अपनी नौका से उसकी नौका की अदला-बदली कर रहा है, या नाविक नौका को स्थल से जल में लाता है, अथवा जल से उसे स्थल में खींच ले जाता है, पानी से भरी हुई नौका से पानी उलीचकर खाली करता है, अथवा कीचड़ में फंसी हुई नौका को बाहर निकालकर साधु के लिए तैयार करके साधु को उस पर चढ़ने के लिए प्रार्थना करता है; तो इस प्रकार की नौका (पर साधु न चढ़े।) चाहे वह ऊर्ध्वगामिनी हो, अधोगामिनी हो या तिर्यग्गामिनी, जो उत्कृष्ट एक योजनप्रमाण क्षेत्र में चलती है, या अर्द्ध योजनप्रमाण क्षेत्र में चलती है, एक बार या बहुत बार गमन करने के लिए उस नौका पर साधु सवार न हो। अर्थात्- ऐसी नौका में बैठकर नदी (जलमार्ग) को पार न करे।
४७५. [कारणवश नौका में बैठना पड़े तो] साधु या साध्वी सर्वप्रथम तिर्यग्गामिनी नौका को जान-देख ले। यह जान कर वह गृहस्थ की आज्ञा को लेकर एकान्त में चला जाए। वहाँ जाकर भण्डोपकरण का प्रतिलेखन करे, तत्पश्चात् सभी उपकरणों को इकट्ठे करके बाँध ले। फिर सिर से लेकर पैर तक शरीर का प्रमार्जन करे। तदनन्तर आगारसहित आहार का प्रत्याख्यान . १. अप्पुस्सुए आदि पदों का अर्थ चूर्णिकार के अनुसार - अप्पुस्सुओ - जीविय-मरणे हरिसं ण
गच्छति। अबहिलेस्से-कण्हादि तिण्णि बाहिरा, अहवा उवगरणे अज्झोववण्णो बहिलेसो, ण बहिलेसो अबहिलेस्सो। एगत्तिगतो- 'एगो मे सासओ अप्पा' अहवा उवगरणं मुतित्ता एगभूतो। वोसजउवरगरणं सरीरादि। समाहाणं - समाधी। संजतगं, ण चडफडेंतो उदगसंघट्ट करेति। एवं आधारिया जहा रिया इत्यर्थः।" अप्पस्सूओ-जिसे जीने-मरने का हर्ष शोक नहीं है। अबहिलेस्से-कृष्णादि तीन लेश्याएँ बाह्य हैं। अथवा उपकरण में आसक्त बाह्यलेश्या वाला है। एगत्तिगतो- मेरा शाश्वत आत्मा अकेला है, इस भावना से ओत-प्रोत अथवा उपकरणों का त्याग करके एकीभूत ! वोसजउपकरण, शरीर आदि का व्युत्सर्ग करके, समाधी-समाधान, चित्त की स्वस्थता। यानी यथार्थआर्योपदिष्ट रीति के अनुसार।