Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
पागाराणि वा तोरणाणि वा अग्गलाणि वा अग्गलपासगाणि वा गड्डाओ वा दरीओ वा सति परक्कमे संजयामेव परक्कमेजा, णो उज्जुयं गच्छेजा। केवली बूया- आयाणमेयं ।
से तत्थ परक्कममाणे पयलेज वा पवडेज वा, से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा रु क्खाणि वा गुच्छाणि वा गुम्माणि वा लयाओ वा वल्लीओ वा तणाणि वा गहणाणि वा हरियाणि वा अवलंबिय २ उत्तरेजा, जे तत्थ पाडिपहिया ? उवागच्छंति ते पाणी जाएजा, २[त्ता] ततो संजयामेव अवलंबिय २ उत्तरेजा। ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा।
५००. से भिक्खू वा २ गामाणुगामं दूइजमाणे, अंतरा से जवसाणि वा सगडाणि वा रहाणि वा सचक्काणि वा परचक्काणि वा सेणं वा विरूवरूवं संणिविढे २ पेहाए सति परक्कमे संजयामेव [ परक्कमेजा], णो उज्जुयं गच्छेजा।
५०१.सेणं से परो सेणागओ वदेजा-आउसंतो ! एस णं समणे सेणाए अभिचारियं करेइ, से णं बाहाए गहाय आगसह।से णं परो बाहाहिं गहाय आगसेज्जा, तं णो सुमणे सिया जाव समाहीए। ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा।
५०२. से भिक्खू वा २ गामाणुगामं दूइज्जमाणे, अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छेज्जा, तेणं पाडिपहिया एवं वदेजा-आउसंतो समणा! केवतिए एस गामे वा जाव रायहाणी वा, केवतिया एत्थ आसा हत्थी गामपिंडोलगा मणुस्सा परिवसंति? से बहुभत्ते बहुउदए बहुजणे बहुजवसे? से अप्पभत्ते अप्पुदए अप्पजणे अप्पजवसे? एतप्पगाराणि पसिणाणि पुट्ठो णो आइक्खेजा, एयप्पगाराणि पसिणाणि णो पुच्छेजा। ३
४९८. ग्रामनुग्राम विचरण करते हुए साधु या साध्वी गीली मिट्टी एवं कीचड़ से भरे हुए अपने पैरों से हरितकाय (हरे घास आदि) का बार-बार छेदन करके तथा हरे पत्तों को बहत मोडतोड़ कर या दबा कर एवं उन्हें चीर-चीर कर मसलता हुआ मिट्टी न उतारे और न हरितकाय की हिंसा करने के लिए उन्मार्ग में इस अभिप्राय से जाए कि पैरों पर लगी हई इस कीचड और गी मिट्टी को यह हरियाली अपने आप हटा देगी', ऐसा करने वाला साधु मायास्थान का स्पर्श करता है। साधु को इस प्रकार नहीं करना चाहिए। वह पहले ही हरियाली से रहित मार्ग का प्रतिलेखन करे (देखे), और तब उसी मार्ग से यतनापूर्वक ग्रामनुग्राम विचरण करे। १. पाडिपहिया के स्थान पर पाठान्तर है 'पाडिवहिया'। चूर्णिकार इस पंक्ति का आशय यों व्यक्त करते हैं
'जिणकप्पितो पाडिपहियहत्थं जाइत्तु उत्तरति, थेरा रुक्खादीणि वि।' जिनकल्पिक मुनि प्रातिपथिक (राहगीर) से हाथ की याचना करके उसका हाथ पकड़ कर उतरते-चलते हैं। स्थविरकल्पी मुनि तो वृक्ष आदि का
सहारा लेकर भी उतरते/चलते हैं। २. 'संणिविटुं' के स्थान पर पाठान्तर है- 'संणिसटुं, सण्णिहूँ।' ३. ...... णो पुच्छेज्जा' के आगे किसी-किसी प्रति में ऐसा पाठ मिलता है—एतप्पगाराणि पसिणाणि पुट्ठो
वा अपुट्ठो वा णो वागरेज्जा।'- अर्थात् -उन गुप्तचरों द्वारा इस प्रकार के प्रश्न पूछने पर या न पूछने पर साधु उत्तर न दे।