Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 435
________________ ४१० आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध सेवन करने वाला निर्ग्रन्थ होता है, अनुज्ञा लिये बिना आहार-पानी आदि का उपभोग करने वाला नहीं। केवली भगवान् कहते हैं कि जो निर्ग्रन्थ गुरु आदि की अनुज्ञा प्राप्त किये बिना पान-भोजनादि का उपभोग करता है, वह अदत्तादान का सेवन करता है। इसलिए जो साधक गुरु आदि की अनुज्ञा प्राप्त करके आहार-पानी आदि का उपभोग करता है, वह निर्ग्रन्थ कहलाता है, अनुज्ञा ग्रहण किये बिना आहार-पानी आदि का सेवन करने वाला नहीं। यह है दूसरी भावना। (३) अब तृतीय भावना का स्वरूप इस प्रकार है-निर्गन्थ साधु को क्षेत्र और काल के (इतना-इतना इस प्रकार के) प्रमाणपूर्वक अवग्रह की याचना करनी चाहिए। केवली भगवान् कहते हैं- जो निर्ग्रन्थ इतने क्षेत्र और इतने काल की मर्यादापूर्वक अवग्रह की अनुज्ञा (याचना) ग्रहण नहीं करता, वह अदत्त का ग्रहण करता है। अत: निर्ग्रन्थ साधु क्षेत्र काल की मर्यादा खोल कर अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करने वाला होता है, अन्यथा नहीं। यह तृतीय भावना है। . (४) इसके अनन्तर चौथी भावना यह है—निर्ग्रन्थ अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करने के पश्चात् बार-बार अवग्रह अनुज्ञा-ग्रहणशील होना चाहिए। क्योंकि केवली भगवान् कहते हैं—जो निर्ग्रन्थ अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण कर लेने पर बार-बार अवग्रह की अनुज्ञा नहीं लेता, वह अदत्तादान दोष का भागी होता है। अतः निर्ग्रन्थ को एक बार अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण कर लेने पर भी पुनः पुनः अवग्रहानुज्ञा ग्रहणशील होना चाहिए। यह चौथी भावना है। .. (५) इसके पश्चात् पांचवी भावना इस प्रकार है- जो साधक साधर्मिकों से भी विचार करके मर्यादित अवग्रह की याचना करता है, वह निर्ग्रन्थ है, बिना विचारे परिमित अवग्रह की याचना करने वाला नहीं। केवली भगवान् का कथन है—बिना विचार किये जो साधर्मिकों से परिमित अवग्रह की याचना करता है, उसे साधर्मिकों का अदत्त ग्रहण करने का दोष लगता है। अतः जो साधक साधर्मिकों से भी विचारपूर्वक मर्यादित अवग्रह की याचना करता है. वही निर्ग्रन्थ कहलाता है। बिना विचारे साधर्मिकों से मर्यादित अवग्रहयाचक नहीं। इस प्रकार की पंचम भावना है। ७८५.इस प्रकार पंच भावनाओं से विशिष्ट एवं स्वीकत अदत्तादान-विरमणरूप ततीय महाव्रत का सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्श करने, उसका पालन करने, गृहीत महाव्रत को भली-भाँति पार लगाने, उसका कीर्तन करने तथा उसमें अंत तक अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप सम्यक् आराधन हो जाता है। भगवन् ! यह अदत्तादान-विरमणरूप तृतीय महाव्रत है। . विवेचन तृतीय महाव्रत की प्रतिज्ञा और उसकी पाँच भावनाएँ प्रस्तुत सूत्रत्रय में पूर्ववत् उन्हीं तीन बातों का उल्लेख तृतीय महाव्रत के सम्बन्ध में किया गया है—(१) तृतीय महाव्रत की प्रतिज्ञा का रूप, (२) तृतीय महाव्रत की पाँच भावनाएँ और (३) उसके सम्यक् आराधन का उपाय । इन तीनों का विवेचन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। १. आचारांग मूलपाठ सटिप्पण पृ० २८४-२८५-२८६ .

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